ग़ज़ल
जीस्त बीती तुम्हे मनाने में
क्या मज़ा मेरे दिल दुखाने में |
इम्तिहां मैं दिया हरेक दफा
तू नहीं चुकती आजमाने में |
स्वर्ग का इंतज़ार अब नहीं’ है
जीना’ मरना इसी जमाने में |
चाहता जो नहीं किसी से खुछ
मस्त रहता है’ गुनगुनाने में |
मैं नहीं जानता कहूँ क्या अब
जो ख़ुशी है तुम्हे हँसाने में |
जुर्म का अब विरोध करना है
यत्न हो सुप्त को जगाने में |
भेद की नीति दिल को’ तोड़ा है
सिलसिला शुरु करे मिलाने में |
कालीपद ‘प्रसाद’
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