उदास सांझ
उदास-उदास सी है सांझ
ढल रहा है रवि भारी कदमों से।
न कोई चिट्ठी न ही कोई सन्देश
बस ढल रहा है दिवस भी।
पंछियों का झुंड भी उदास
जाने कहाँ छुपा होगा
कौन सी डाल या पेड़ की
खोखर में।
लौटे नहीं परदेशी अभी भी
देश अपने-अपने।
उदास बूढ़ी दो जोड़ी आंखें
बन्द किवाड़ो की झीरी से
देख रही हैं जाने-पहचाने की
बाट।
कान लगे हैं दीवारों से शायद
आहट कोई देकर जाए ये
उदास सांझ।
मगर न कोई आहट ही
न कोई अपना या पराया ही
आया है इस पार।
चुपचाप दबे पांव लौट रहा है
दिन और साथ है छलिया सी
निष्ठुर उदास सांझ।
न खड़खड़ाहट ही पत्तों की
न झींगुर की झुनझुन ही।
न आरती के गूंजते स्वर और
न ही मस्जिद में सांझ की अजान।
न छतों पर शोर मचाते बच्चे।
न दूध बेचने वाले काका ही।
न कटोरी भर चीनी उधार मांगती
पड़ोसन।
न ही खिड़की से झांकता चाँद।
न आईने के सामने खुद को संवारती
दुल्हन ही।
कैसी भयावह सूनी, उदास,डरावनी सी
सांझ।
मन और भी उदास कर रही है ये
उदास सांझ।।
एकदम शांत,सन्नाटे को दावत
देती हुई सांझ, उदास सांझ।।
— सविता वर्मा “ग़ज़ल”