कविता

यह कैसा वैशाख

जिंदगी की बैसाखियों पर,
चलकर यह आज,
कैसा वैशाख आया।

न आज भांगड़े हैं।
न मेले सजे हैं ।

फसल कटने -काटने का ,
किसे ख्याल आया।।

ज़िंदगी की बैसाखियों पर,
चलकर आज,
कितना मजबूर वैशाख आया।

गेहूँ की फसल का ,
घर के ,
आंगन में आज न ढेर आया ।

कोरोना विस्फोटक हुआ।
मेलों की रौनक का ,
न किसी को चाव रहा।
जिंदगी को ,
पिछले साल से,
कहीं ज्यादा मजबूर पाया।

दिहाड़ी -दार अपना दर्द ,
ढोल की तान पर ना भूल पाया।

जिंदगी की बैसाखियों पर,
चलकर यह कैसा वैशाख आया।

वह हल्की गर्म हवाओं के साथ,
न तेरी धानी चुनर का,
पैगाम आया ।

यह कैसा !!!
उदास ????
ऊबा हुआ वैशाख आया।

— प्रीति शर्मा “असीम”

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- [email protected]