विकलांग बल ने 14 अप्रैल को ‘संविधान संशोधन दिवस’ के रूप में मनाने का निश्चय किया है। इसके कई ठोस कारण हैं।
15 अगस्त, 1947 को देश विभाजन के बाद स्वतंत्रता मिलने पर देश के संविधान की आवश्यकता का अनुभव हुआ, तो आजीवन अंग्रेजों के सहयोगी रहे डॉ अम्बेडकर को प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में संविधान बनाने का कार्य दिया गया। ब्रिटिश शासक भारत में ऐसा संविधान चाहते थे, जिससे भारतीय जनता परेशान हो जाए और यही माने कि ब्रिटिश शासन ही अच्छा था, इसलिए संविधान सभा में ऐसे असामाजिक तत्वों को भी बैक डोर एंट्री करवाई गई, जो सरदार पटेल जैसे लोकप्रिय स्वतंत्रता संग्रामियों के विरोध के कारण चुनाव हार गए थे।
भारत के स्वतंत्रता संग्राम में स्वामी विरजानन्द, योगी अरविन्द घोष, चारुचंद्र बोस, बच्चू सिंह, चंद्रशेखर आजाद, सुभाष चंद्र बोस आदि अनेक विकलांगों और आंशिक विकलांगजनों का विस्तृत योगदान था, किन्तु संविधान निर्माण में विकलांगजनों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया। इतना ही नहीं, विकलांगों व अनाथों का प्रतिनिधित्व करने वाले भरतपुर और अलवर के शासकों को नजरबंद कर दिया गया, ताकि वास्तविक पीड़ितों के लिए कोई न बोले।
इसके परिणामस्वरूप, भारत के जिस संविधान का निर्माण हुआ, उसमें विकलांगों जैसे असली जरूरतमंदों का कोई स्थान नहीं था। वास्तव में यह संविधान साइमन आयोग की रिपोर्ट पर बने 1935 के भारत सरकार अधिनियम पर आधारित था, जिसके विरोध में लाला लाजपतराय जैसे अनेक देशप्रेमी बलिदान हुए थे। संविधान सभा में उसी अधिनियम के साथ ब्रिटेन, संयुक्त राज्य अमेरिका, आयरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा, सोवियत संघ, जापान और फ्रांस के संविधान के अनेक भाग जोड़कर संविधान निर्मित किया गया। कॉपी-पेस्ट तकनीक से बनाये गये इस संविधान के निर्माण में ही 2 साल, 11 माह, 18 दिन का समय लग गया था।
लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि कई देशों के संविधानों में विकलांगों और अनाथों जैसे वास्तविक अभावग्रस्तों को जो संरक्षण दिया गया है, उसका हमारे देश के संविधान में कोई स्थान नहीं था। इसके विपरीत बीसवीं सदी की महामारी ‘स्पेनिश फ्लू’ से बचाव के लिए जो सुरक्षा उपाय अपनाये गये थे, उनको जातिगत भेदभाव छुआछूत बता दिया गया और सभी सुविधाएं अनुसूचित जाति और जनजाति के वर्ग में रखकर उनको अनावश्यक संरक्षण दे दिया गया। जन्मना जाति वर्ग आधारित ऐसा कोई संरक्षण संसार के किसी अन्य देश के संविधान में नहीं है।
यदि संविधान निर्माता चाहते, तो संविधान में विकलांगों और अनाथों को भी साथ ही जोड़कर संरक्षण दे देते, किन्तु ऐसा करने से जन्म आधारित आरक्षण कठिन हो जाता और वास्तविक पीड़ित को देना पड़ता, इसलिए विकलांगों/अनाथों को पूरी तरह से हटा दिया गया। इतना ही नहीं, जब 1951 में श्रीमती दोईराजन केस में तत्कालीन सर्वोच्च न्यायधीश हरिलाल कानिया ने जातिगत आरक्षण को भेदभाव विरोधी अनुच्छेद 16(2) के विरुद्ध बताकर अवैध बता दिया, तो प्रथम लोकसभा चुनावों से पहले ही संसद ने पहला संविधान संशोधन करके अनुच्छेद 46 से जातिगत आरक्षण को ही वैध करवाया, साथ ही वाक और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए अनुच्छेद 19(1)(क) को भी कमजोर कर दिया, जिससे उस समय विकलांगों, अनाथों, जरूरतमंदों के लिए कुछ कहना या करना भी अपराध की श्रेणी में आ गया। तब से आज तक भी विकलांगों और अनाथों को उनका वास्तविक अधिकार नहीं मिला है।
इस भेदभाव को दूर करने का केवल एक ही उपाय है कि जो सुविधा विकलांगों और अनाथों को मिलनी चाहिए, उसे जाति आधारित वोटबैंक को देना बंद करके उसके सही पात्रों को लौटा दिया जाए। इसके लिए संविधान में उचित संशोधन करना आवश्यक है। यह कैसी बिडम्बना है कि राजनेता स्वयं ठीक होते हुए भी व्हीलचेयर जैसे विकलांगों के उपकरणों का उपयोग करके चुनावों में सहानुभूति बटोरते हैं, परन्तु असली विकलांगों के लिए कुछ नहीं करते।
हमारे संविधान में अभी तक एक सौ से अधिक संशोधन हो चुके हैं, किन्तु एक भी संशोधन विकलांगों के हित में नहीं किया गया है। आवश्यकता है उचित प्रकार के न्यायपूर्ण संशोधन की। इसलिए हम डॉ अम्बेडकर के जन्मदिन 14 अप्रैल को ‘संविधान संशोधन दिवस’ के रूप में मनाएं, ताकि इसका सन्देश हर जगह जाए।
— डॉ विजय कुमार सिंघल
प्रधान, विकलांग बल