कहाँ तक ये मन को अंधेरे छलेंगे उदासी भरे दिन कभी तो ढ़लेंगे
कितना भी इस पंक्तियों को हम गुनगुनाएं पर ज़िंदगी कि आपाधापी से उलझते एक आतंक से उभरे ना उभरे कि, हर कुछ समय बाद समय अपनी करवट बदलता है, और अपना अनमना और स्याही पहलू दिखा देता है। अच्छा है हम इंसानों के भीतर एक शक्ति ईश्वर ने दी है हल्की सी खुशी का भी भरपूर आनंद उठाने की। ज़िंदगी की तो रीत ही यही है इम्तिहानों का सिलसिला थमता ही नहीं। हमें विकसित करना है खुद के भीतर एक हुनर सकारात्मकता का जिसके सहारे समय की हर चाल को मात देना है।
पर कभी किसीने सोचा है कहाँ आज से चालीस-पचास साल पहले का समय और कहाँ आज का ? उस समय में बहुत कम सुविधाएं थी फिर भी इंसान शांति से जीवन निर्वाह करता था। सच कहूँ उस समय स्वार्थ और लालच ने इतने पैर नहीं जमाए थे। परिवर्तन के चलते ज़माना बहुत आगे बढ़ गया है सुख सुविधाएं बढ़ी है, आज सबकुछ है हमारे पास फिर भी बहुत कम लोग सर्वांग सुखी है। क्या कारण है, क्यूँ कुदरत हमसे रूठी है ? ये एक सोचनिय मुद्दा है हमारी सोच, हमारी मानसिकता, हमारी आदतें और हमारी पूरी शख़्सीयत जवाबदार है। इंसान खुद को भगवान समझने लगा है, इंसानियत कहीं दफ़न हो गई है।
स्वार्थ और लालच का ऐसा नशा चढ़ा है सबको कि दुनिया में हम क्यूँ आए है ये मकसद ही हम भूल गए है। परमार्थ की परिभाषा को स्वार्थ ने गोद ले लिया है। दंभ, पाखंड और पाने की खिंचातानी ने और सबकुछ भूला दिया है। ना पर्यावरण की चिंता, ना देश को हर लिहाज से स्वच्छ रखने की फ़िक्र, ना औरतों का सम्मान माँ बहन वाली गालियां और वहशियत देखकर आँखें नम हो जाती है। दोषारोपण हमारी पहचान बन गई है। जात-पात और हिन्दु मुस्लिम वाली मानसिक ने सबकी सोच को बौना कर दिया है। मानसिक तौर पर उपर उठने की बजाय हम गिरते जा रहे है। हल्की मानसिकता ने हम सबको बर्बादी की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया है।
हम ईश्वर को याद तो करते है, पर जब काम पड़े तब कहीं फंस जाए, कोई दु:ख दर्द आ जाए, या कोई कुदरती आफ़त आए उसमें भी एक भीख और रिश्वत छुपी होती है। हे भगवान सब ठीक कर दे मैं ये करूँगा, वो करूँगा ईश्वर सुनते भी है सब ठीक भी हो जाता है, दूसरे दिन हम जैसे थे। ज़िंदगी सिर्फ़ उम्र काटने का नाम नहीं ज़िंदगी वो है जो ओरों के काम आए, ईश्वर को करीब पाएँ और मरकर भी अमर हो जाए।
कुछ करने की जरूरत नहीं ईश्वर को पाना बहुत आसान है। ईश्वर साफ़ मन और भावना के भूखे है। मोह त्याग कर, स्वार्थ त्याग कर अपनापन और भाईचारे की भावना को जीवित करने की जरूरत है। पर यहाँ तो एक घर में चार-पाँच लोग भी शांति से नहीं रह सकते, वहाँ इतनी बड़ी आबादी को क्या समझाए। कहने और करने में ज़मीन आसमान का अंतर है, कितने लोग समझ पाएंगे कि क्यूँ समय अपनी चाल बार बार बदल रहा है। हमें चेतावनी तो देता है फिर भी कोई समझ नहीं पाता रत्ती भर भी खुद के भीतर झांक कर नहीं देखता। पर अब आत्म निरिक्षण का समय आ गया है वरना अंधेरे हमें यूँही छलते रहेंगे और उजाले की आस में हम और गहरी खाई में गिरते रहेंगे। अगर अब भी आदतें और मानसिकता नहीं सुधरी तो एक दिन निश्चित रुप से दुनिया तबाही के दलदल में घंस जाएगी वो दिन दूर नहीं।
— भावना ठाकर