मानव के सिर पर तना कला-वितान है विरासत
अविराम गति नवल सर्जना की पीठिका है और ठहराव अवसान का द्योतक। इसलिए कालचक्र की नियति निरन्तर गतिशीलता ही है। काल पुरुष सभ्यताओं एवं संस्कृतियों के उत्थान, विकास एवं पतन का एकमात्र साक्षी होता है। सभ्यताएं जन्मती हैं और अपना सृजन-दायित्य निभाकर जीवन का पटाक्षेप भी करती हैं। फिर उसी उर्वर भूमि पर अनुकूल समय, समिधा एवं श्रम का समन्वित साकल्य प्राप्त कर किसी दूसरी सभ्यता-संस्कृति का अंकुर फूटता है और काल द्वारा प्रदत विस्तृत फलक पर अपनी मेधा, प्रतिभा एवं विवेक बुद्धि से कला, साहित्य, स्थापत्य के तेजोमय सितारे टांकते हुए सृजन के मनोहारी विविध रंग बिखेर कर किसी अन्य सभ्यता और संस्कृति के लिए आधार तैयार कर विदा लेती है। सभ्यताओं के उद्भव, विकास, विस्तार और पराभव का यह क्रम चलता ही रहता है। यही सृष्टि का नियम है। पर कोई भी सभ्यता-संस्कृति अपने कर्म की चादर समेटने से पूर्व सर्जना के ऐसे बेजोड़ अद्भुत ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक आदर्श स्थापित कर जाती है जो आने वाली पीढ़ी के लिए गर्व, गरिमा और गौरव बन उसके भाल पर सुशोभित हो अपने कौशल, कल्पना, कर्मशीलता की स्वर्णिम आभा से जग को आलोकित करती है। यही सृजन प्रत्येक पीढ़ी को उसके पूर्वजों से प्राप्त थाती को संभालते हुए कुछ नया और बेहतर रचने-गढ़ने को प्रेरित एवं प्रोत्साहित करता है जो सुसंस्कृत, वैज्ञानिक चेतना संपन्न और कल्याणकारी हो। पुरखों से प्राप्त सर्जना के ये अप्रतिम उदाहरण वह धरोहर के रूप में संजोकर रखता है ताकि आगामी पीढ़ी को सौंप सके। प्रकृति भी अपनी ओर से कुछ उत्कृष्ट रचनाएं धरोहर रूप में लोक को भेंट करती है। विरासत में प्राप्त ये अमूल्य रत्नरूपी धरोहरें वास्तव में काल पुरुष के भाल पर संस्कृति का किरीट है, सभ्यता के मलय चंदन का शीतल सुवासित तिलक है। कर्णपुटों में फंसा चैत्रीय पाटल के इत्र का फाहा है जिसकी सुगंध से लोक शान्ति, सुख एवं समृद्धि का अनुभव करता है। वास्तव में धरोहरें जीवित-जाग्रत इतिहास वृत्त है। मानव के सिर पर तना कला-वितान है जिसकी सुखद छांव में वह नवल रचना-कर्म की ओर प्रवृत्त होता है।
विश्व में धरोहर के रूप में प्रत्येक देश में ऐसे निर्माण स्थल उपलब्ध हैं जिस पर संपूर्ण मानव जाति गौरवान्वित है। भले ही कोई धरोहर किसी स्थान विशेष में अवस्थित और किसी देश के अधिकार क्षेत्र में हो पर वे वैश्विक हैं, साझी हैं, क्योंकि वे किसी काल विशेष का मानवीय इतिवृत्त है। प्रकृति की भौगोलिक बदलाव की गाथा है। इसलिए चाहे वे गीजा के रहस्यमय पिरामिड हों, विज्ञान को चुनौती देती पीसा की झुकी मीनार हो या सौंदर्य के प्रतिमान के मानक गढ़ता ताजमहल। कुंभलगढ़ किले की सुदृढ सुरक्षात्मक प्राचीर हो या अंतरिक्ष से भी दिख जाने वाली चीन की विशाल दीवार।़़़़़़़़ गुलाबी नगरी जयपुर हो या इराक का बेबीलोन शहर, लाओस के लौहयुगीन हजारों मटकों वाला क्षेत्र हो या जापान के पंद्रह सौ साल पुराने 49 शाही मकबरे या फिर कम्बोडिया के अंकोरवाट स्थित मंदिर। इन हजारों-हजार अमूल्य धरोहरें प्राप्त कर हम हर्षित हैं और गर्वित एवं गौरवान्वित भी। पर समय के साथ-साथ ये धरोहरें शनैः शनैः छीज रही है। मानव के लोभ, स्वार्थ एवं भोगवादी व्यवहार से कला के अप्रतिम उदाहरण नष्ट हुए हंै और मानव जीवन की गरिमा कलंकित हुई है। मानवीय मूल्यों एवं आदर्शों को खूंटी पर टांग कर मानव अपने उत्तरदायित्वों से मुंह मोड़े केवल स्व की संतुष्टि के सारहीन जीवन में निमग्न है।
इन धरोहर स्थलों पर हमेशा नुकसान की आशंका बनी रहती है। नवीन विकास, शहरीकरण, प्राकृतिक आपदाओं, हिंसा एवं आतंकी गतिविधियों के कारण बहुत सारे धरोहर स्थल क्षतिग्रस्त हुए हैं जिनमें 2001 में तालिबान द्वारा अफगानिस्तान बामियान की बौद्ध मूर्तियां, 2012 में सहारा मरुभूमि का ऐतिहासिक व्यापरिक नगर टिम्बक्टू एवं इस्लामिक स्टेट द्वारा सीरिया तथा इराक में कुछ वैश्विक धरोहरों का नष्ट किया जाना चिंतनीय है। धरोहरों के नष्ट होने से इतिहास नहीं बदल सकता। ऐतिहासिक धरोहरों की जितनी दुर्दशा भारत में हुई और अभी भी हो रही उतना किसी देश में नहीं हुआ। हम भारतीयों में अपने अतीत के वाचिक गौरव गान का आनन्द तो है पर धरोहरों को संभालने की जिम्मेदारी का नितांत अभाव दिखाई देता है। यही कारण है कि भारत में समृद्ध धरोहर के रूप में प्राप्त किले, महल, शिलालेख, ताल-बावली, मंदिर तथा प्रकृति प्रदत्त नदियों, पुराकालीन गुफाओं एवं कानन-पर्वतों आदि का संरक्षण करने की बजाय हमने अपने हाथों स्वयं उसे उजाड़ा है, नष्ट-भ्रष्ट किया है। खजाने की खोज में प्रस्तर मूर्तियां खंडित की और तमाम छोटे किले खोद कर धराशायी कर दिए गए। इन पुरातात्विक महत्व की इमारतों की कोई भी ऐसी दीवार ऐसा, कोना नहीं बचा जहां पर नासमझ मनुष्य ने कील या नाखून से अपने हस्ताक्षर उत्कीर्ण न किये हांे, प्राकृतिक संपदा को नष्ट न किया है। सैकड़ों वर्ष पुराने दुर्लभ पारिजात जैसे पावन वृक्ष को भी हम संभाल नहीं सके।
इसीलिए बहुमूल्य धरोहरों के संरक्षण के लिए वैश्विक चिंता प्रकट हुई। संपूर्ण विश्व में मानव सभ्यता से जुड़े ऐतिहासिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक स्थलों के संरक्षण के प्रति समाज में जागरूकता लाने के उद्देश्य से यूनेस्को की पहल पर 1982 में ट्यूनीशिया में अंतरराष्ट्रीय स्मारक एवं पुरातत्व स्थल दिवस के आयोजन के अवसर पर एक प्रस्ताव के आधार पर 18 अप्रैल को विश्व धरोहर दिवस के रूप में मनाए जाने की परंपरा का सूत्रपात हुआ। तब से प्रति वर्ष विश्व विरासत दिवस मना कर हम इन अमूल्य वैश्विक धरोहरों के संरक्षण का संकल्प लेते हुए कलासाधक पूर्वजों के प्रति आदर सम्मान व्यक्त करते हैं। इसके लिए एक विश्व स्तरीय धरोहर समिति बनाई गई जो अपनी वार्षिक बैठक में सदस्य देशों से प्राप्त नामांकन आवेदनों पर विचार कर प्रत्येक वर्ष कुछ नए धरोहर स्थल को संरक्षण सूची में अंकित करने की घोषणा कर रखरखाव की योजना बनाती है। इन धरोहरों का अंकन तीन प्रकार की सूचियों में किया जाता है जो ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक, प्राकृतिक एवं मिश्रित वर्ग में होती हैं। 1978 में सर्वप्रथम 12 स्थलों को इन सूची में अंकित किया गया था जो वर्तमान में 1000 से ऊपर हो गए हैं। भारत 37 धरोहर स्थलों के साथ छठे नंबर पर है जबकि 54 धरोहर स्थलों के साथ इटली सर्वोपरि है। 1983 में सूची में शामिल ताजमहल विश्व की शीर्ष 10 अति महत्वपूर्ण धरोहर स्थलों में अभी तक शामिल है। भारत के 37 धरोहर स्थलों में से प्रमुखरूप से कुतुब मीनार, कोणार्क का सूर्य मंदिर, 12 वीं शताब्दी में निर्मित खजुराहो के मंदिर, काजीरंगा अभ्यारण, अजंता एवं एलोरा की गुफाएं, नालंदा महाविहार, छत्रपति शिवाजी टर्मिनस, लाल किला परिसर, जंतर मंतर जयपुर और फूलों की घाटी का उल्लेख करना उचित होगा। यह हमारा राष्ट्रीय कर्तव्य है कि हम इस विरासत को संरक्षित कर आगामी पीढ़ी के हाथों में सौंपते हुए गर्व से कह सकें कि पूर्वजों के श्रम-स्वेद से सिंचित इस धरोहर को नष्ट नहीं होने दिया बल्कि श्रद्धाभाव के सुमन समर्पित कर अर्चना की है, वंदन अभिनंदन किया है।
— प्रमोद दीक्षित ‘मलय’