व्यंग्य : लोटा – पुराण
हम सभी यह अच्छी तरह से जानते हैं कि लोटा तो लोटा ही है।यदि लोटे को परिभाषित किया जाए तो ‘लोटा वही है जिसे हर दिशा में लोटने की सुविधा प्राप्त हो।’ लोटा अपने रंग, रूप, आकार और प्रकार में अन्य भाण्डों से कुछ इतर और भिन्न ही होता है।परंतु एक समानता सभी लोटों में समान रूप से पाई जाती है,वह है उसके हर एक दिशा में लोट पाने और पुनः उसी रूप में जम जाने का गुण।
लोटे की विविध रूपिणी विशेषताओं का यदि सूक्ष्म अध्ययन किया जाए तो वह बहु आयामीय होता है।वह प्रायः गोल मटोल औऱ सदैव सुडौल ही होता है। उसका ऊपर का मुँह सदा खुला रहता है। उसमें नीचे कोई मुँह नहीं होता। क्योंकि यदि ऐसा होगा तो वह अपने भीतर जिस अपार क्षमता का धारक और वाहक होता है, वह समाप्त ही हो जाएगी। इसलिए यह सिद्धांत सर्वमान्य औऱ सर्व स्वीकार्य है कि लोटे का मुँह सदा खुला रहता है। जब उसका मुँह सदैव खुला रहेगा तो यह भी स्वयं सिद्ध है कि उसमें कोई भी चीज कभी भी डाली जा सकती है। अर्थात वह रात -दिन,सुबह-शाम, अँधेरे-उजाले कभी भी कुछ भी ग्रहण कर लेने की असीम क्षमता से युक्त होता है।
इस ढक्कन रहित लोटे की देह सदैव चिकनी रहती है।कब कहाँ फिसल जाए यह प्राकृतिक सुविधा उसे जन्म से ही प्राप्त है।वह अपने को इस प्रकार सजा – संवार कर रखता है कि कोई भी उस पर फिसले तो उसे कभी भी कोई आपत्ति नहीं है, इंकार नहीं है।लोटे पर फिसलने वाला सदैव उसके मुँह के अंदर होता हुआ उसके असीम गहराई से युक्त उदर में समा जाता है। जब उदर की बात चली है, तो यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना भी उचित प्रतीत होता है कि लोटे का उदर अनंत गहराइयों से युक्त एक अँधेरी गुफ़ा की तरह है, जिसके समस्त रहस्यों का अभिज्ञान स्वयं लोटे को भी नहीं है।
पहले ही कहा जा चुका है कि लोटा किसी भी दिशा में लुढ़क -पुढक सकता है, इसीलिए वह ‘लोटा’है। इस विशेष गुणवत्ता के लिए उसका बेपेंदी का होना ही चमत्कारिक गुण है। इसी चमत्कार के कारण वह ‘लोटा ‘ नामधारी विशेष संज्ञा से अभिहित किया जाता है। लोटे की इसी गुण से प्रेरणा लेकर जो कुर्सियाँ चार -चार पाँव धारण करती थीं, वे एक ही स्थान पर जमी किसी भी दिशा में घूमने लगीं।वे अपने चारों पाँवों को खो बैठीं। जीव विज्ञान का यह एक विशेष सिद्धांत है कि हम अपने जिस अंग का प्रयोग नहीं करते, शनैः शनैः विलुप्त हो जाता है। कहा गया है मानव पहले एक पशु है, बाद में मनुष्य।उसके भी पशुवत एक पूंछ कमर के नीचे गाय, भैंस, बंदर, गधा, घोड़ा की तरह लटकती रहती थी।उसने आलस्यवश अथवा अप्रयोग वश काम में नहीं लिया,इसलिए कालांतर में वह विलुप्त ही हो गई।
आपकी जानकारी के लिए यहाँ पर यह बता देना भी आवश्यक प्रतीत होता है कि पहले जमाने के लोटे पेंदी वाले ही हुआ करते थे। लेकिन जब लोटे ने देखा कि इस पेंदी की कोई विशेष उपयोगिता नहीं है, इसलिए उसने उसका प्रयोग करना ही बन्द कर दिया। पहले के पेंदी वाले लोटों की अपनी एक अलग ही मान मर्यादा थी,जिसका अनुपालन करते हुए वे जब मनचाहा, लुढ़कते पुढक़ते नहीं थे। एक जगह जमकर अपने कार्य का निष्पादन करते थे।पर अब क्या ? अब तो रातों रात वे कायाकल्प कर लेते हैं। शाम को उनमें पीला – पीला बेसन भरा था, पर सुबह होते- होते उनमें देशी घी, मक्खन, रबड़ी और इसी प्रकार के मधुर सुस्वाद व्यंजन भरे दिखाई देते हैं।उनके इस रहस्य को थालियां, कटोरियाँ क्या समझें ? हाँ, उनके समीपस्थ सेवक चमचे, चमच्चियाँ अवश्य जान समझ लेते हैं। क्योंकि इस उलट -पुलट में उनका अहं योगदान भी रहता है।
जब ‘लोटा – पुराण ‘ का पारायण किया ही जा रहा है, तो यह स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है कि इन लोटों की अनेक श्रेणियाँ और प्रकार हैं। यद्यपि यह पृथक रूप से शोध का विषय है, तथापि एल्युमिनियम, लोहा, स्टील, पीतल, ताँबा, चाँदी, सोना आदि अनेक प्रकार के लोटे पाए जाते हैं।आज के युग में एल्युमिनियम और लोहे के लोटे का प्रचलन क्षीण हो गया है, इसलिए चमक -दमक वाले उच्च गुणवत्ताधारी लोटे ही प्रचलन में हैं। स्टील से कम तो शायद कोई लोटा मिलना ही दुर्लभ है। अपनी लोटा -यात्रा में ये स्टील, पीतल और ताँबे के लोटे चाँदी के लोटों में बदल जाते हैं। ये विज्ञान का नहीं, ज्ञान का चमत्कार है।अन्यथा पीतल, लोहा, ताँबा को चाँदी में बदलते हुए नहीं देखा सुना गया। जब लोटा चाँदी के महिमावान स्तर को प्राप्त कर लेता है, तो उसका दर्जा सामान्य लोटे से असामान्य लोटे में आगणित किया जाता है।अब दचके-पिचके, छेद दार लोटों का युग नहीं है।
लोटों की निःशुल्क यात्रा पूरे देश में अनवरत चलती रहती है। लोटा जितना चलता है, उतना ही बजता है। बजता अर्थात बोलता है, मुँह तो उसका पहले से ही खुला हुआ है, इसलिए बिना ढक्कन, बिना धक्का धकापेल बोलता है। जो वह बोलता है, उसे वह ब्रह्मवाक्य मानता है। वस्तुतः लोटे की महिमा अपार है। भले ही यह संसार असार है, पर लोटे के लिए संसार ही सार है, क्योंकि संसार से ही उसका उद्धार है। इसलिए वह लोटे से थाली, परात नहीं बनना चाहता । वह सदा जन्म जन्मांतर तक लोटे की ही योनि में जन्म धारण कर अपने जीवन को धन्य करना चाहता है। इस लोटा योनि में जो स्वर्गिक सुख है, वह कटोरा, चमचा, चम्मच, थाली, परात की योनि में नहीं है।इससे वह स्व-उदर की सेवा सर्वाधिक कर पाने का सौभाग्य बटोर पाता है। धन्य है ये ‘लोटा- योनि’, जिससे लोटा कभी उऋण नहीं होना चाहता।
इति ‘लोटा – पुराणम’ समाप्यते।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’