ग़ज़ल
आदमी की छाँव से बचने लगा है आदमी।
आदमी को देखकर छिपने लगा है आदमी।।
आँख से दिखता नहीं महसूस भी होता नहीं,
क्या बला यों आग से तपने लगा है आदमी
मूँ दिखा पाने केलायक रह न पाया शख्स ये
चश्म दो अपने झुका झिपने लगा है आदमी।
हाथ धो पीछे पड़ा आतंक का डंडा लिए,
दस्त निज धोता हुआ कंपने लगा है आदमी।
झील सागर पर्वतों की लेश भी बाधा नहीं,
हहर हाहाकार में खपने लगा है आदमी।
यों कभी नज़रें झुकाए निज गरेबाँ झाँक ले,
आसन्न अपनी मौत से डरने लगा है आदमी।
‘शुभं’अपनी गलतियाँ वह मानता तौहीन है,
सबक वह लेता नहीं मरने लगा है आदमी।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’