गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

आंँधियों से लड़ रहा है दीप इक जलता हुआ,
हौसलों से जीत मुमकिन पाठ ये पढता हुआ।
साथ मेरे चल के देखो पाओगे मंज़िल सदा,
वक्त गुज़रा पास से इक बात ये कहता हुआ,
जिसकी लहरों में किनारे और हैं मंझधार भी,
वो समंदर मेरे भीतर हर घड़ी बहता हुआ।
कल गुलाबों की बड़ी नज़दीकियांँ कांटो से थी,
आज ज़ख्मों से चुभन के खून है, रिसता हुआ।
ये वबा का दौर है मायूस है हर आदमी,
ज़िंदगी को जी रहा है हर घड़ी मरता हुआ।
मुस्कुराना भी जहांँ मुश्किल हुआ है आज पर,
‘जय’ मिलेगा देखना हर हाल में हंँसता हुआ।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से