मानवीयता का पाठ
मानवीयता का पाठ
“कहाँ जा रहे हैं आप लोग!आप लोगों को पता नहीं है कि शहर की सीमाएँ सील की गई हैं।न तो कोई शहर में आ सकता है और न ही कोई जा सकता है।”
“सर,मेरे भाई की हार्ट अटैक से मौत हो गई है।मुझे उनके अंतिम संस्कार में उज्जैन पहुँचना है।” कार में बैठी संभ्रांत महिला ने रोते हुए पुलिस अधिकारी से अनुनय की।
“देखिए मैडम,आपका दुख मैं समझ सकता हूँ लेकिन अभी कोरोना का कहर मचा हुआ है।जाने वाले तो चले गए, अब आप क्यों अपना ,अपने परिवार और समाजजनों का अहित करना चाह रहे हैं।हमें कोरोना की चैन तोड़ना है।बेहतर होगा कि आप सभी अपने घरों में रहें और वहीं से मृतात्मा की शांति के लिए प्रार्थना करें।” बहुत ही संयमित और शांत स्वर में उसने समझाना चाहा।
“आप लोगों में जरा सी भी मानवीयता नहीं है।शायद आपको मानवीयता का पाठ अपने घरों में पढ़ाया ही नहीं गया होगा। हम आपकी यह गैरकानूनी बात मानने के लिए बाध्य नहीं हैं।”महिला लगभग चीखते हुए बिफर गई।
“देखिए मैडम,आप मुझे सख्त कदम उठाने के लिए मजबूर न करें।”और गाड़ी में बैठे ड्राइवर को डपटते हुए कहा -” चलो गाड़ी वापस मोड़ो और इन लोगों को इनके घर पर छोड़ो और तुम अपने घर जाओ।नहीं तो गाड़ी जप्त कर लूंगा और आप लोगों के विरुद्ध सख्त कार्यवाही करने पर मजबूर होना पड़ेगा।।”
उधर गाड़ी वापस लौट रही थी और पुलिस अधिकारी बुदबुदा रहा था -” मानवीयता का पाठ ! हम खुद अपनी जान जोखिम में डालकर चौबीसों घंटे ड्यूटी दे रहे हैं लोगों को संक्रमण से बचाने के लिए और उसपर ये लोग मानवीयता के पाठ की बात करते हैं। हाँ,एक टीस जरूर है कि काश… मैं स्वयं अपनी पत्नी और बच्ची को मायके की शादी में जाने से रोक लेता तो कोरोना के कहर से उन्हें भी बचा सकता था और आज वे जिंदा होते।”