कविता

नींदों का अमंगल मरुभूमि है ये

नींदों का अमंगल मरुभूमि है ये  ।
बिरह का जंगल सूनी सूनी है ये  ।।
भयंकर रातों की यादें है ये  ।
अदभुत त्रासों की म्यादें है ये ।।
ख्वाबों का अमंगल मरुभूमि है ये ।
बिरह का जंगल सूनी सूनी है ये  ।।
भयंकर रातों की यादें है ये  ।
अदभुत नासों की प्यादें हैं ये ।।
नयें  नयें  ठाउँ  ठहर  में  ।
नयें  नयें  गाउँ  शहर  में  ।।
बिखल बन्द सभाओं  में  ।
शीतल मन्द हवाओं  में  ।।
अब  तो  मुझे  वनवास हुआ।
नींदों में ख्वाबों का आभास हुआ ।।
बिरहों  से  शाबाशी  मिला  ।
बीहड़ों  से शाबाशी  मिला  ।।
बिरहों के बीहड़ों में जंगलों में ,
बीते  हुए  कितने  यादें  आए ।
नींदों  के अमंगल  मरुभूमि  से,
निकले हुए कितने फरियादें आए।।
बीते  हुए  कितने  अपने  आए  ।
सोयें  हुए  कितने  सपने  आए  ।।
छुपे  हुए  कितने  कल्पनायें आए ।
रोते  हुए  कितने   अपने     आए ।।
नींदों का अमंगल मरुभूमि है ये  ।
बिरह का जंगल सूनी सूनी है ये  ।।
भयंकर रातों की यादें है ये  ।
अदभुत त्रासों की म्यादें है ये ।।
— मनोज शाह मानस 

मनोज शाह 'मानस'

सुदर्शन पार्क , मोती नगर , नई दिल्ली-110015 मो. नं.- +91 7982510985