नींदों का अमंगल मरुभूमि है ये
नींदों का अमंगल मरुभूमि है ये ।
बिरह का जंगल सूनी सूनी है ये ।।
भयंकर रातों की यादें है ये ।
अदभुत त्रासों की म्यादें है ये ।।
ख्वाबों का अमंगल मरुभूमि है ये ।
बिरह का जंगल सूनी सूनी है ये ।।
भयंकर रातों की यादें है ये ।
अदभुत नासों की प्यादें हैं ये ।।
नयें नयें ठाउँ ठहर में ।
नयें नयें गाउँ शहर में ।।
बिखल बन्द सभाओं में ।
शीतल मन्द हवाओं में ।।
अब तो मुझे वनवास हुआ।
नींदों में ख्वाबों का आभास हुआ ।।
बिरहों से शाबाशी मिला ।
बीहड़ों से शाबाशी मिला ।।
बिरहों के बीहड़ों में जंगलों में ,
बीते हुए कितने यादें आए ।
नींदों के अमंगल मरुभूमि से,
निकले हुए कितने फरियादें आए।।
बीते हुए कितने अपने आए ।
सोयें हुए कितने सपने आए ।।
छुपे हुए कितने कल्पनायें आए ।
रोते हुए कितने अपने आए ।।
नींदों का अमंगल मरुभूमि है ये ।
बिरह का जंगल सूनी सूनी है ये ।।
भयंकर रातों की यादें है ये ।
अदभुत त्रासों की म्यादें है ये ।।
— मनोज शाह मानस