कहानी

परत दर परत

दो दिन से पानी की मोटर खराब थी। कल प्लम्बर ने बड़ी खुशामद के बाद जब सुबह आने का आश्वासन दिया तब जाकर सुजाता का मन कुछ शान्त हुआ था फिर भी जैसे एक अविश्वास-सा बना हुआ था, इसीलिए आज छः बजे से ही सुजाता घर के पिछले बरामदे में प्लम्बर की राह देखती चक्कर काट रही थी। यहाँ से पूरा नहीं तो आधा शहर तो दिखाई दे ही जाता था।
प्लम्बर के घर पर फोन भी तो नहीं था कि वह फोन करके पूछ ही लेती या याद दिला देती। अब तो चुपचाप इंतज़ार करना है। राह देखते-देखते जब साढ़े सात बज गए तो वह थककर कुर्सी पर बैठकर नीचे शहर की तलहटी में बहती सतलुज नदी की लहरों से मन बहलाने की कोशिश करने लगी।
शहर के कदमों में बहती सतलुज नदी कुल्लू और शिमला जिले की विभाजन रेखा का काम करती, शहर को गुंजाती पूरे जोर-शोर से बह रही थी। अचानक ही सुजाता को लगा कि पुल पर कुछ भीड़-सी है। अभी वह बात को समझने की कोशिश करती कि कुछ लोगों को उसने पुल की तरफ दौड़ते देखा। थोड़ी ही देर में पुलिस भी पहुँच गई वहाँ। सुजाता की जिज्ञासा बढ़ती ही जा रही थी। सोच रही थी कि बाहर जाकर बात का पता लगए, कि तभी पड़ोस की अर्चना भागती हुई आई,
‘‘आंटी……आंटी!’’ अर्चना हाँफ रही थी।
‘‘क्या हुआ अर्चना? तुम हाँफ क्यों रही हो?’’ पर अर्चना शायद खुद पर काबू पाने की चेष्टा कर रही थी, उसने पुल की तरफ इशारा किया।
‘‘हाँ, मैं भी देख ही रही हूँ, पर हुआ क्या है?’’ अब तक अर्चना अपनी साँसों पर काबू पाकर कुर्सी पर बैठ चुकी थी। उसकी बड़ी-बड़ी आँखें फैलकर और भी बड़ी दिखाई दे रही थीं, ‘‘आंटी, मधुर……मधुर की बहू ने…. पुल पर से सतलुज में छलांग लगा दी है। उसकी चप्पल और दुपट्टा वहाँ मिला है।’’
‘‘क्या कह रही है रे?’’ सुजाता चौंककर खड़ी हो गई।
‘‘हाँ आंटी। उनके घर में तो बड़ी भीड़ है, वहाँ तो पुलिस वाले पहले गए थे, अब पुल पर आए हैं। ’’
‘‘तुझे किसने बताया?’’
‘‘मधुर आंटी के नौकर हरी ने। वह दुकान पर सफाई करने जा ही रहा था कि मधुर आंटी की बेटी गौरी पुल की तरफ से भागती हुई आई और उसने ही कहा कि नयना भाभी ने पुल पर से नदी में छलांग लगा दी है।’’ सुजाता की साँस अटक गई थी। उसे अपनी समस्या तो भूल ही गई। आँखों के आगे नयना का मासूम-सा चेहरा बार-बार घूमने लगा। अभी एक महीना ही तो हुआ था उस घर में शहनाई बजे।
नयना बतरा, उसकी बेटी आरती की नई टीचर थी। पिछले अभिभावक दिवस पर जब वह आरती के स्कूल पोर्टमोर में मीटिंग के लिए शिमला गई थी, तभी उसका नयना से परिचय हुआ था। अभी छः महीने पहले की ही तो बात है। मीटिंग से कुछ पहले ही प्रिंसिपल ने अभिभावकों को नए आए शिक्षकों का परिचय दिया जिनमें नयना बतरा भी थी। नयना बहुत हँसमुख और चंचल लग रही थी। बल्कि यूँ कहा जाए कि उसकी तो आँखें ही बोलती थीं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं थी। उस एक मुलाकात में ही वह सुजाता को अच्छी लगने लगी थी परन्तु दूसरे दिन सुजाता घर वापस लौट आई थी।
आरती पोर्टमोर के हॉस्टल में थी। वह जब भी माँ को फोन करती तो नयना मैडम के बारे में जरूर बात करती। तभी एक दिन आरती ने बताया कि उसकी मैडम अब रामपुर बुशहर ही आ रही है। उनकी शादी मधुर आंटी के बेटे शील से हो रही है, ‘‘मम्मी! आप जरूर मेरी मैम को मिलकर आना। ’’
हालांकि मधुर का घर उनके घर से ज्यादा दूर नहीं था पर सुजाता चाहकर भी नयना से मिलने का समय नहीं निकाल पाई। आज उसी नयना की आत्महत्या का समाचार था, जो उसके गले नहीं उतर रहा था। कितनी विचित्र बात थी, सुजाता कैसे विश्वास कर ले इस बात पर? आरती ने बताया था कि नयना मैडम जूडो-कराटे की चैम्पियन भी रही हैं और कॉलेज यूनियन की लीडर भी। ऐसी लड़की विवाह के एक महीने बाद ही आत्महत्या कर ले…? असम्भव।
दोपहर को आरती का फोन आया, वह घटना की सत्यता के बारे संदिग्ध थी। सुजाता की पुष्टि पर वह रोने ही लग गई आर रोते-रोते बोली, ‘‘नहीं मम्मी, ऐसा नहीं हो सकता। हमारी मैम तो कहती थी कि आत्महत्या कायर लोग करते हैं। बहादुर तो मुसीबतों को सामना करते हैं। वो कैसे कर सकती हैं आत्महत्या? नहीं सब लोग झूठ बोल रहे हैं। हमारे स्कूल में भी सब ऐसा ही कह रहे हैं।’’ सुजाता ने बड़ी मुश्किल से बेटी को समझाया, पर सच क्या है इसका पता नहीं चल रहा था।
इस घटना को तीन दिन बीत गए थे। खबरें छन-छन कर आ ही रही थीं। फिर सुना गया कि नयना की माँ रामपुर पुलिस स्टेशन गई थी, अपनी बेटी की गुमशुदगी की रपट लिखाने पर पुलिस वालों ने रपट नहीं लिखी। अब तो हर रोज़ कोई न कोई नई बात सामने आने लगी थी। फिर धीरे-धीरे मामला ठंडा पड़ता गया और लोग भूलने लगे नयना और मधुर को। तभी एक दिन पूरा शहर सन्नाटे में आ गया। मधुर, उसकी बेटी गौरी और बेटा शील दहेज अधिनियम के अन्तर्गत धर लिये गये। मामला क्या है जानने के लिए सुजाता ने शाम को मधुर की अभिन्न मित्र बेला को घेर लिया।
बेला, सुजाता के बगल वाले मकान में ही रहती थी। उसके पास टीवी नहीं था और वह रोज संध्या के भोजन से निपटकर सुजाता के पास टीवी देखने बैठा करती थी। उस रात भी भोजन से निवृत्त होकर जब बेला और सुजाता टैलीविजन के सामने बैठी सीरियल देख रही थीं तो सुजाता ने अचानक ही बात छेड़ दी, ‘‘बहन जी, कैसी है मधुर? आप गए थे उसे दखने?’’
‘‘हाँ भाभी! गई तो थी, पर हम लोग कर क्या सकते हैं बेचारी के लिए? ऐसी गन्दी बहू ले आई कम्बख़त कि जेल का मुँह देखने की नौबत आ गई पूरे परिवार को।’’
‘‘क्यों क्या हुआ…..?’’ सुजाता ने एकदम अनजान बनते हुए कहा।
‘‘तुम्हें नहीं पता क्या…., बहू की माँ ने दहेज का केस कर दिया है। बदमाश राण्ड, अपने यार के साथ खुद भाग गई और बेचारी मधुर के पूरे परिवार को फंसा गई।’’
‘‘पर बहन जी, मैंने तो सुना था कि पुलिस ने उसका केस ही दर्ज नहीं किया फिर ये कैसे हो गया?’’
‘‘अरे भाभी, तुम ना! बहुत सीधी हो। वो जो पी.डब्लयू.डी. मिनिस्टर है न, वह उनके गाँव का है। बस वही आकर बैठ गया पुलिस वालों की छाती पर। अब तो केस सी.बी.आई. के पास चला गया है। पता नहीं क्या होगा।’’ बहन जी का स्वर चिन्ता में डूबा हुआ था।
‘‘परेशानी की क्या बात है बहन जी, अब और क्या होना है? सीबीआई तो दूध का दूध और पानी का पानी कर देगी।’’
‘‘यही तो परेशानी की बात है, यहाँ तो कोई सुनने वाला भी नहीं बेचारी का। आदमी पहले ही नहीं, बेटा भी जेल में है खुद तो अस्पताल में पड़ी है।’’
‘‘क्यों अस्पताल में क्यों?’’ सुजाता ने अनजान बनते हुए पूछा।
‘‘अरे, उसे तो पुलिस को देखते ही हार्ट अटैक पड़ गया था। पुलिस वाले ही उसे अस्पताल ले गए थे।’’ फिर थोड़ा रुककर कहने लगीं, ‘‘बहू गई तो गई राण्ड, पर जाते-जाते बेचारी मधुर के 50 तोले के सोने के कंगन भी ले गई। इतना खर्चा शादी में किया ऊपर से यह मुसीबत। बेचारी मधुर तो मारी गई बेमौत।’’
‘‘हाँ, कह तो आप ठीक ही रहे हैं।’’ सुजाता ने कहा, ‘‘पर मैंने तो सुना है, कि नयना के ड्रेसिंग टेबल की दराज़ में 15000 के नए नोट भी निकले हैं। अगर वह अपने पंद्रह हज़ार के नोट वहीं पर छोड़ गई तो मधुर के कंगन क्यों ले गई?’’
‘‘पहने हुए थे राण्ड ने। मधुर ने दिए थे उसे शादी में मुँह दिखाई।’’ बेला बहन जी अपना पूरा गुबार उस नयना पर निकाल रही थीं, जिसका अभी तक कोई सुराग भी नहीं मिला था।
हर दिन एक नई कहानी सुनने को मिल रही थी, कोई कहता, एक महीना हो गया शादी को आज तक किसी ने नयना की शक्ल भी नहीं देखी। कोई कहता, ससुराल वालों ने मार दी लड़की। यानि जितने मुँह उतनी बातें। सीबीआई. ने पूरे जोर-शोर से अपना काम शुरू कर दिया था। शहर के बहुत से बा-रसूख लोग धरे जा रहे थे रोज छान-बीन के चक्कर में।
ऐसे माहौल में शहर में एक बार फिर से जैसे भूकम्प आ गया हो, शोर मचा, मधुर के छोटे बेटे को खेल आ गई है। उस पर देवी का प्राकट्य हो गया है। कौतुहल वश सुजाता भी भीड़ में शामिल हो गई अन्यथा उसे इन सब बातों में कोई रुचि नहीं थी।
सुजाता ने देखा, घर में सारा शहर उमड़ा पड़ा था। पैर रखने को जगह नहीं मिल रही थी। बड़ी मुश्किल से कुछ लोगों को धकेलते हुए उसने एक ऐसे कोने में खड़े होने के लिए जगह बना ली जहाँ से मधुर का छोटा बेटा सुमेर बैठा हुआ साफ़ दिखाई दे रहा था।
सुजाता ने देखा, सुमेर पूजा करने की मुद्रा में लग रहा था। पालथी मारकर बैठे सुमेर के माथे पर बड़ा-सा रोली का तिलक लगा था, जिस पर चावल चमक रहे थे। हालांकि सुमेर की आयु मुश्किल से पंद्रह साल की थी, परन्तु इस समय उसके चेहरे पर पूर्ण गम्भीरता का साम्राज्य फैला हुआ था। सामने थाली में थोड़ी पूजा की सामग्री भी रखी हुई थी। भीड़ में एक पुलिस इंस्पेक्टर के साथ दो सिपाही भी खड़े थे। सम्भवतया सोच रहे थे कि क्या कर सकते हैं।
मधुर, गौरी और शील, तीनों ही पुलिस हिरासत में थे, घर में वयस्क के नाम पर केवल एक नौकर हरी था और थी परिवार की एक विवाहित बेटी जो घटना के बाद ही आई थी। वह भी हतप्रभ खड़ी थी। सुमेर थोड़ी-थोड़ी देर बाद सिर को गोल-गोल घुमाता कह रहा था, ‘‘काली! मैं काली हूँ। खुश हूँ। मुझे बलि मिली है, मैं खुश हूँ।…और बलि चाहिए, और बलि।’’
अब पुलिस इंस्पेक्टर सुमेर के पास आकर पूछने लगा, ‘‘बेटा…..मुझे बताओ, क्या हुआ है, किसकी बलि हुई है?’’ पर सुमेर जैसे कुछ सुन ही नहीं रहा था। फिर बोलने लगा, ‘‘काली हूँ, काली। आधी बलि मिली है, और लूँगी…और लूँगी…और बलि…’’ और सिर को पूरे जोर से गोल-गोल घुमाने लगा।
अब एक बुजुर्ग महिला धरती पर माथा टेक कर बोली, ‘‘माता। यदि तू काली माँ है तो हमें बता, घर की नई बहू कहाँ चली गई और तुझे किसकी बलि दी गई है? बकरे की या मुर्गे की?’’
‘‘नहीं, मुझे नर बलि दी गई है। नई बहू की। नई बहू….हाँ…हाँ नई बहू।’’ सुमेर का सिर बराबर घूम रहा था, अब उसने सिर को नीचे धरती से लगा दिया था। इंस्पेक्टर ने उसका सिर उठाना चाहा तो वह बिफर गया, ‘‘दूर रहो। वहाँ देखो जाकर, घास के नीचे। वहीं रखी थी मेरी बलि।’’ उसने बिना सिर उठाए ही कहा। इंस्पेक्टर ने तुरन्त सिपाहियों को इशारा किया।
सिपाही उधर को हो लिए जहाँ घर की गाय के लिए घास रखा जाता था। ऊपर से थोड़ा-सा हरा घास उठाने के बाद नीचे की सूखी घास ऐसे दबी हुई था जैसे कोई वज़नदार चीज़ उस पर रखी गई हो। तभी एक सिपाही चिल्लाया ‘‘साब! साब, पायल।’’
यह पायल उसी घास में उलझी हुई थी। उसने पायल लाकर इंस्पेक्टर को दे दी।
बड़े गौर से पायल को दखते हुए इंस्पेक्टर नौकर की तरफ घूमा। तो हरि ने आँखें झुकाकर कहा, ‘‘जी साब, ये बहू जी की ही है। ये उन्हें ढीली थी, कई बार निकल जाती थी। एक बार मुझे भी खोजने को कहा था मैंने तभी देखी थी।’’
अचानक सब का ध्यान फिर सुमेर की तरफ चला गया जो जोर-जोर से रोने लग गया था और रोते-रोते जमीन पर ही लेट गया। पर अब तक तो मामला पलट चुका था।
पुलिस के संदेह की सूई परिवार की ओर घूम चुकी थी। इंस्पेक्टर ने सुमेर को गोद में उठा लिया तो वह कुछ नहीं बोला। उसे मानसिक चिकित्सा हेतु ले जाया गया। पुलिस की जीप निकली तो भीड़ भी छंटने लगी। घर आकर सुजाता और उलझ गई, क्या हुआ होगा? उसे लग रहा था कि सुमेर नाटक कर रहा है। उसे अवश्य ही बहुत कुछ पता है जो वह कह नहीं पा रहा। शायद इंस्पेक्टर को भी वही लगा हो जो उसे लगा है, इसीलिए वह सुमेर को ले गया है।
उधर हिरासत में गौरी अपने बयान पल-पल बदल रही थी। कभी वह कहती कि वह और नयना दोनों रोज नदी पर घूमने जाती थीं, कभी कहती उसने नयना को उधर जाते देखा तो उसका पीछा किया। शील ने पुलिस को बताया कि दो दिन बाद नयना को बीए के पेपर देने अपने मायके जाना था। अलबत्ता मधुर चुप थी।
बड़े लोग, बड़ी बातें। पर कुछ दिन बाद सब शान्त हो गया। मधुर का परिवार जमानत पर आ गया और मुकदमा चलता रहा।
दो साल गुज़र गए। इस बीच सुजाता ने गाड़ी ले ली थी। पड़ोस के गाँव का ही एक लड़का सुजाता ने ड्राइवर रख लिया थी गाड़ी के लिए, उसका नाम सोनू था। जब उसे कहीं जाना होता तो सोनू को बुला लेती।
एक दिन सोनू ने उसे बताया, ‘‘बीबी जी! मधुर की बेटी गौरी ने फांसी लगा ली है।’’
‘‘क्यों…?’’
‘‘जैसी करनी, वैसी भरनी। यह तो होना ही था।’’
‘‘पर क्यों होना था?’’ सुजाता थोड़ा खीज गई।
‘‘बीबी जी! जब बेगानी बेटियों को जहर देकर मारा जाता है तो अपनी बेटियों के बारे में भी सोचना चाहिए कि नहीं? सोनू ने उल्टा सवाल कर दिया।
‘‘पर तू कैसे कह रहा है कि बहू इन्होंने मारी है। कुछ निकला तो है ही नहीं।’’
‘‘निकलेगा कैसे, बड़े घरों के मामले ऐसे ही दबते हैं।’’ तू तो ऐसे कह रहा है जैसे सब कुछ तेरी आँखों के सामने हुआ हो।’’ सुजाता की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी।
‘‘और क्या, सब सामने ही तो था। लाश तो मैं ही फेंककर आया था।’’
‘‘क्या कह रहा है रे?’’
‘‘हाँ बीबी जी।’’ सोनू रुआंसा हो गया, जब तक मैंने सी.बी.आई वालों को सब कुछ नहीं बता दिया, मेरे मन पर भारी बोझ रहता था, पर अब मैं हल्का महसूस कर रहा हूँ। मुझे हर समय लगता था, कि मैं भी इस हत्या में शामिल हूँ। मैंने तो जो सच था, बता दिया अब उनको सज़ा मिले या न मिले मैं दोषी नहीं हूँ।’’
‘‘पर तू इस मामले में कहाँ से कूद गया। तू तो उन दिनों सरकारी गाड़ी चलाता था न?’’
‘‘हाँ जी, कच्ची नौकरी थी। जैसे आप बुला लेते हैं, वैसे ही साब भी बुला लेते थे इसीलिए फंस गया। अब मैं आपको ठीक से बता ही देता हूँ सारा मामला, पर चाय भी पियूँगा।’’ वह पालथी मारकर वहीं जमीन पर बैठ गया। सुजाता को भी चाय की तलब तो लग ही रही थी, वह चाय बना लाई। चाय का कप सोनू को दिया और सामने ही कुर्सी पर बैठ गई। सोनू ने चाय का कप पकड़ा फिर बड़े मनोयोग से सारी कहानी सुनाने लगा, ‘‘उस दिन मेरे साहब की मेम साब, अपने सेब के बाग से बहुत देर में वापस आई थी इसलिए मुझे भी घर जाने में देर हो गई। घर जाकर खाना खाया और थका हुआ था तो गहरी नींद आ गई। रात आधी गुज़र गई थी कि दरवाजा भड़भड़ाने लगा। घर वाली मेरे उठने से पहले ही उठकर बाहर गई, लौटकर बोली ‘साब ने बुलाया है।
मैं कुढ़ता हुआ कपड़े फंसाता बाहर निकल गया। कोठी पर पहुँचा तो साब ने कहा, ‘इसी समय शिमला जाना है।’ अब साब को जवाब कैसे देता चल पड़ा, पर तभी साब ने जीप बाजार में उतारने को कहा। मधुर बीबी जी के घर के पास पहुँचकर उन्होंने गाड़ी रुकवाई और घर में चले गए। रोज का काम था, हम छोटे लोग क्या कह सकते थे। मैंने सोचा शायद ये भी जाती होंगी, पर थोड़ी ही देर बाद शील बाबू और हमारे साहब, एक भारी-सी बोरी को दोनों तरफ से पकड़े बाहर आए और बोरी को जीप के पिछले हिस्से में पटक दिया और हम शिमला की सड़क पर हो लिए।’’ वह थोड़ा रुका, जैसे बोलते-बोलते थक गया हो।

‘‘सैंज से पहले ही साहब ने मुझे गाड़ी लूहरी वाली सड़क पर डालने को कहा तो मैंने गाड़ी नीचे वाली सड़क पर उतार दी। पुल के पास पहुँचकर साब ने गाड़ी रोकने को कहा। गाड़ी रुकने पर साहब नीचे उतरे और बोरी को अकेले घसीटने लगे तो मैंने उनकी मदद करने के लिए बोरी को पीछे से पकड़ा, अब मुझे लगा कि बोरी में कुछ नरम-नरम सी चीज़ है। पर जब तक मैं कुछ सोचता-समझता बोरी सतलुज के पानी में थी। इतना ही नहीं जिस जगह बोरी फेंकी गई थी, वहाँ कुछ ही समय पहले एक जोड़ा मगरमच्छ लाकर छोड़े गए थे। फिर साब ने लॉगबुक भरी और स्टेशन शिमला लिख दिया। तीन दिन बाद जब हम वापस आए तब मामला मेरी समझ में आया। कैसे हैं न ये बड़े लोग, बस एक फ्रिज नहीं आया तो लड़की मार दी। वह भी पैसे तो आ ही गए थे, बहू ने उन्हें बताया नहीं था।’’
सुजाता आँखें फाड़े सोनू को देख रही थी कि तभी सोनू फिर बोल उठा, ‘‘बीबी जी, आपको पता ही नहीं, सुमेर को कोई देवी-वेवी नहीं आई थी। उन लोगों ने सुमेेर के सामने ही कोई जहरीली चीज बहू जी को जबरदस्ती पिलाई थी। वह चीखता रहा, ‘मत मारो भाभी को’ पर बड़े भैया ने उन्हें पकड़ा और गौरी ने कटोरी जबरदस्ती उनके मुँह से लगा दी। मधुर बीबी ने उनके बाल खींचे और मुँह खोला। बड़ा तेज जहर था थोड़ी ही देर में मर गई बेचारी। सुमेर ने तो नाटक किया था, ताकि सब पकड़े जाएँ।’’
‘‘हूँ…। तो यह सब सुमेर ने बताया होगा पुलिस को।’’ सुजाता ने एक ठंडी साँस भरते हुए कहा, ‘‘फिर भी छूट ही गए सब। हाँ भाई! पैसा है तो हर गुनाह माफ।’’
‘‘बीबी जी, इस दुनिया में तो छूट गए, पर भगवान के घर से कैसे छूटेंगे। आँख के सामने है।’’ कहता हुआ वह उठकर खड़ा हो गया।

— आशा शैली

*आशा शैली

जन्मः-ः 2 अगस्त 1942 जन्मस्थानः-ः‘अस्मान खट्टड़’ (रावलपिण्डी, अब पाकिस्तान में) मातृभाषाः-ःपंजाबी शिक्षा ः-ललित महिला विद्यालय हल्द्वानी से हाईस्कूल, प्रयाग महिलाविद्यापीठ से विद्याविनोदिनी, कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी से कहानी लेखन और पत्रकारिता महाविद्यालय दिल्ली से पत्रकारिता। लेखन विधाः-ः कविता, कहानी, गीत, ग़ज़ल, शोधलेख, लघुकथा, समीक्षा, व्यंग्य, उपन्यास, नाटक एवं अनुवाद भाषाः-ः हिन्दी, उर्दू, पंजाबी, पहाड़ी (महासवी एवं डोगरी) एवं ओडि़या। प्रकाशित पुस्तकंेः-1.काँटों का नीड़ (काव्य संग्रह), (प्रथम संस्करण 1992, द्वितीय 1994, तृतीय 1997) 2.एक और द्रौपदी (काव्य संग्रह 1993) 3.सागर से पर्वत तक (ओडि़या से हिन्दी में काव्यानुवाद) प्रकाशन वर्ष (2001) 4.शजर-ए-तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2001) 5.एक और द्रौपदी का बांग्ला में अनुवाद (अरु एक द्रौपदी नाम से 2001), 6.प्रभात की उर्मियाँ (लघुकथा संग्रह-2005) 7.दादी कहो कहानी (लोककथा संग्रह, प्रथम संस्करण-2006, द्वितीय संस्करण-2009), 8.गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतन्त्रता सेनानियों की जीवनियाँ-2007), 9.हमारी लोक कथाएं भाग एक से भाग छः तक (2007) 10.हिमाचल बोलता है (हिमाचल कला-संस्कृति पर लेख-2009) 11. सूरज चाचा (बाल कविता संकलन-2010) 12.पीर पर्वत (गीत संग्रह-2011) 13. आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी (नारी विषयक लेख-2011) 14. ढलते सूरज की उदासियाँ (कहानी संग्रह-2013) 15 छाया देवदार की (उपन्यास-2014) 16 द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह) प्रेस में प्रकाशनाधीन पुस्तकेंः-द्वंद के शिखर, (कहानी संग्रह), सुधि की सुगन्ध (कविता संग्रह), गीत संग्रह, बच्चो सुनो बाल उपन्यास व अन्य साहित्य, वे दिन (संस्मरण), ग़ज़ल संग्रह, ‘हण मैं लिक्खा करनी’ पहाड़ी कविता संग्रह, ‘पारस’ उपन्यास आदि उपलब्धियाँः-देश-विदेश की पत्रिकाओं में रचनाएँ निरंतर प्रकाशित, आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के विभिन्न केन्द्रों से निरंतर प्रसारण, भारत के विभिन्न प्रान्तों के साहित्य मंचों से निरंतर काव्यपाठ, विचार मंचों द्वारा संचालित विचार गोष्ठियों में प्रतिभागिता। सम्मानः-पत्रकारिता द्वारा दलित गतिविधियों के लिए अ.भा. दलित साहित्य अकादमी द्वारा अम्बेदकर फैलोशिप (1992), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां (प्रतापगढ़) द्वारा साहित्यश्री’ (1994) अ.भा. दलित साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा अम्बेदकर ‘विशिष्ट सेवा पुरुस्कार’ (1994), शिक्षा साहित्य कला विकास समिति बहराइच द्वारा ‘काव्य श्री’, कजरा इण्टरनेशनल फि़ल्मस् गोंडा द्वारा ‘कलाश्री (1996), काव्यधारा रामपुर द्वारा ‘सारस्वत’ उपाधि (1996), अखिल भारतीय गीता मेला कानपुर द्वारा ‘काव्यश्री’ के साथ रजत पदक (1996), बाल कल्याण परिषद द्वारा सारस्वत सम्मान (1996), भाषा साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा ‘साहित्यश्री’ (1996), पानीपत अकादमी द्वारा आचार्य की उपाधि (1997), साहित्य कला संस्थान आरा-बिहार से साहित्य रत्नाकर की उपाधि (1998), युवा साहित्य मण्डल गा़जि़याबाद से ‘साहित्य मनीषी’ की मानद उपाधि (1998), साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां से आचार्य ‘महावीर प्रसाद द्विवेदी’ सम्मान (1998), ‘काव्य किरीट’ खजनी गोरखपुर से (1998), दुर्गावती फैलोशिप’, अ.भ. लेखक मंच शाहपुर (जयपुर) से (1999), ‘डाकण’ कहानी पर दिशा साहित्य मंच पठानकोट से (1999) विशेष सम्मान, हब्बा खातून सम्मान ग़ज़ल लेखन के लिए टैगोर मंच रायबरेली से (2000)। पंकस (पंजाब कला संस्कृति) अकादमी जालंधर द्वारा कविता सम्मान (2000) अनोखा विश्वास, इन्दौर से भाषा साहित्य रत्नाकर सम्मान (2006)। बाल साहित्य हेतु अभिव्यंजना सम्मान फर्रुखाबाद से (2006), वाग्विदाम्बरा सम्मान हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से (2006), हिन्दी भाषा भूषण सम्मान श्रीनाथद्वारा (राज.2006), बाल साहित्यश्री खटीमा उत्तरांचल (2006), हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान, (2007) में। हिन्दी भाषा सम्मेलन पटियाला द्वारा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान (2008), साहित्य मण्डल श्रीनाथद्वारा (राज.) सम्पादक रत्न (2009), दादी कहो कहानी पुस्तक पर पं. हरिप्रसाद पाठक सम्मान (मथुरा), नारद सम्मान-हल्द्वानी जिला नैनीताल द्वारा (2010), स्वतंत्रता सेनानी दादा श्याम बिहारी चैबे स्मृति सम्मान (भोपाल) म.प्रदेश. तुलसी साहित्य अकादमी द्वारा (2010)। विक्रमशिला हिन्दी विद्यापीठ द्वारा भारतीय भाषा रत्न (2011), उत्तराखण्ड भाषा संस्थान द्वारा सम्मान (2011), अखिल भारतीय पत्रकारिता संगठन पानीपत द्वारा पं. युगलकिशोर शुकुल पत्रकारिता सम्मान (2012), (हल्द्वानी) स्व. भगवती देवी प्रजापति हास्य-रत्न सम्मान (2012) साहित्य सरिता, म. प्र. पत्रलेखक मंच बेतूल। भारतेंदु साहित्य सम्मान (2013) कोटा, साहित्य श्री सम्मान(2013), हल्दीघाटी, ‘काव्यगौरव’ सम्मान (2014) बरेली, आषा षैली के काव्य का अनुषीलन (लघुषोध द्वारा कु. मंजू षर्मा, षोध निदेषिका डाॅ. प्रभा पंत, मोतीराम-बाबूराम राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय हल्द्वानी )-2014, सम्पादक रत्न सम्मान उत्तराखण्ड बाल कल्याण साहित्य संस्थान, खटीमा-(2014), हिमाक्षरा सृजन अलंकरण, धर्मषाला, हिमाचल प्रदेष में, हिमाक्षरा राश्ट्रीय साहित्य परिशद द्वारा (2014), सुमन चतुर्वेदी सम्मान, हिन्दी साहित्य सम्मेलन भोपाल द्वारा (2014), हिमाचल गौरव सम्मान, बेटियाँ बचाओ एवं बुषहर हलचल (रामपुर बुषहर -हिमाचल प्रदेष) द्वारा (2015)। उत्तराखण्ड सरकार द्वारा प्रदत्त ‘तीलू रौतेली’ पुरस्कार 2016। सम्प्रतिः-आरती प्रकाशन की गतिविधियों में संलग्न, प्रधान सम्पादक, हिन्दी पत्रिका शैल सूत्र (त्रै.) वर्तमान पताः-कार रोड, बिंदुखत्ता, पो. आॅ. लालकुआँ, जिला नैनीताल (उत्तराखण्ड) 262402 मो.9456717150, 07055336168 [email protected]