राजनीति

राजनीतिक हिंसा – बंगाल का चरित्र

बंगाल के चुनाव पर पूरे देश की नजर बनी हुई थी, यह चुनाव बहुत हद तक यह तय करता कि आगे भविष्य में देश की राजनीति किस दिशा में जाने वाली है। मुख्य चुनोती भाजपा और तृणमूल में थी, विपक्षी दल कांग्रेस इस लड़ाई से पहले ही बाहर हो चुकी थी, परन्तु सभी संभावनाओं को मिथ्या सिद्ध करते हुए एकबार फिर से बंगाल में ममता दीदी के शासन पर मुहर लग गई।
तृणमूल के सत्ता पर काबिज होते ही भाजपा कार्यकर्ता, भाजपा कार्यालयों पर हमले होने लगे, कोई 1,2 जगह नही, बल्कि पूरे प्रदेश में इस राजनीतिक हिंसा ने भीषण अग्नि का रूप ले लिया। इन दंगों, आगजनी, बलात्कार, हत्याओं का मुख्य आरोपी तृणमूल समर्थकों को बताया जा रहा है, अपनी विजय से उन्मत्त हुए तृणमूल समर्थकों ने अपनी राजनीतिक रंजिशों को कानून हाथ में लेते हुए अंजाम दिया। कानून का यह मजाक पूरे प्रदेश में देखा जा सकता है, पुलिस असहाय नजर आ रही है, क्योंकि उसके हाथ व पैर दोनों बंधे है।

तृणमूल ने आरंभ से ही न्यायपालिका, प्रशासन व मीडिया को इस प्रकार दबाकर रखा, जैसे देश का अन्य कोई मुख्यमंत्री न कर सका। यही कारण था कि तृणमूल कार्यकर्ता पर हाथ डालने के पूर्व कोई एसपी भी कई बार सोचता है। यह दृश्य केवल कुछ प्रदेशों की राजनीति में ही देखने को मिलेंगे। जहां जनता समझदार है, न्यायपालिका स्वतंत्र है, प्रशासन जिम्मेदार है, वहां नेता चाहे किसी भी पार्टी का हो दोषी होने पर उसे कोई बच्चा नही सकता । कानून की पारदर्शिता भी सम्यक बनी रहती है, जनता से इस प्रकार भेदभाव नही होता जैसी स्थिति बंगाल की बनी हुई है। साफ तौर से तृणमूल समर्थकों को प्रश्रय मिलने के कारण वे कानून हाथ में लेते है, लोकल प्रशासन पुलिस सभी एक दूसरे से इस प्रकार संपर्क में रहते है कि हिंसा होने के बाद ही पुलिस मौके पर पहुचती है। जो दृश्य हम हिंदी सिनेमा में 20 साल पहले देखा करते थे बंगाल की राजनीति आज भी वहीं खड़ी हुई है। यही कारण है कि सत्ता में काबिज किसी शासन को हटाना यहां मामूली बात नही। कार्यकर्ता का पुलिस स्टेशन पहुचना बड़ी बात होती है, तो फिर विधायक या सासंद की तो बात ही क्या! वे बेताज बादशाह है उन क्षेत्रों के।

भाजपा ने कई क्षेत्रों में तृणमूल को कड़ी टक्कर दी, लगभग 80 सीटों पर अच्छा प्रदर्शन करने वाली भाजपा। 90 सीटों पर भी बहुत कम अंतर से हारी। इसे देखकर हम समझ सकते ही कि बंगाल परिवर्तन के लिए बिल्कुल तैयार था। परन्तु एक बार फिर ममता दीदी का तुष्टिकरण वाला आईडिया काम आया। तृणमूल के ऐसे 80 से अधिक विधायक विजयी हुए जो मुस्लिम थे, और मुस्लिम बहुल क्षेत्रो से खड़े हुए। तुष्टिकरण का यह तरीका आपको भले ही पुराना लगता हो किंतु जहां मुस्लिम वोटबैंक अधिक होता है वहां यह बखूबी काम करता है, और करे भी क्यों ना जिन बंगलादेशी घुसपैठियों को ममता सरकार में राशन व अन्य सुविधाएं दिलवाई है, उनके संरक्षण के लिए ममता दीदी CAA के विरोध में सड़कों पर आई थी, तो बंगलादेशी वोट तो ममता दीदी को मिलेंगे ही साथ ही वे कट्टरवादी वोट भी उनकी झोली में गए जो कहीं न कहीं तृणमूल द्वारा भाजपा की धौंस और भय दिखाकर बटोरे गए थे। यही कारण था कि मुस्लिम बहुल सीटों पर तृणमूल शत प्रतिशत सफल रही। हिन्दू वोटबैंक विभाजित भी हुआ और भ्रमित भी। खैर परिवर्तन के लिए भाजपा को ही चुनना यह आवश्यक नही था, परन्तु तृणमूल सत्ता की निरंकुशता को समाप्त करने के लिए वर्तमान में भाजपा ही अच्छा विकल्प थी। उसका नेतृत्व, कार्यकर्ता, संगठन इस चुनाव में पूरी दमदारी से लड़ा। और आज भी कार्यकर्ता व उनके परिवार संघर्ष कर रहे है। राज्यपाल ने डीजीपी को तलब करते हुए उनसे दंगो की रिपोर्ट मांगी। ग्रह मंत्रालय भी बंगाल हिंसा पर सख्त रवैया अपनाए हुए है। मंगलवार को संभवतः भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा का दौरा बंगाल में हो सकता है। अभी आवश्यक यह है कि बंगाल में हिंसा को जैसे भी हो रोका जाए, दोषियों का बिना चेहरा देखे उन्हें दण्डित किया जाए। चाहे जितने केस बने, चाहे जितने गिरफ्तार हो, परन्तु प्रशासन व पुलिस की भूमिका निष्पक्ष हो। ममता जी आज भी बंगाल की मुख्यमंत्री है, आरोप प्रत्यारोप का खेल बंद करते हुए उन्हें प्रदेश की व्यवस्था को दुरुस्त करना चाहिए, ताकि अत्याचारियों को दंड और पीड़ितों को न्याय मिल सके। मीडिया को भी अपनी भूमिका निभाते हुए दोषियों को समाज व प्रशासन के सामने एक्सपोज करना चाहिए। जब तक देश की न्यायपालिका और मीडिया ईमानदार रहेंगे, देश में कोई निरंकुश शासन नही कर सकता।

कांग्रेस व सीपीआईएम का बंगाल में सूपड़ा साफ हो गया, भाजपा मुख्य विपक्षी दल बनकर सामने आई। बंगाल के लोगो का विश्वास इन दोनों ही विपक्षी दलों से उठ चुका था। इसी कारण कांग्रेस व सीपीआईएम दोनों को ही एक भी सीट नही मिली। कितने ही प्रत्याशियों की जमानत जब्त हुई। वास्तविकता भी यही है, कांग्रेस व सीपीआईएम दोनों ही केवल भाजपा को चुनाव में जीत न मिले, इस उद्देश्य से लड़ रहे थे।

भाजपा के लिए एक बड़ा सबक इस चुनाव में यह है कि अपने कार्यकर्ताओं व मतदाताओं की सुरक्षा उसके लिए पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। तृणमूल उसी आधार पर चुनाव जीतती आयी है, जिसने तृणमूल का सहयोग किया, उसे संरक्षण प्रश्रय प्राथमिकता मिलती है, अन्य जनता को दूसरे दर्जे में रखा जाता है, यदि भाजपा अपनी नीति नही बदलती तो अगली बार उसका जनाधार निश्चित रूप से कम होना है, क्योंकि बंगाल की राजनीति देश की राजनीति से भिन्न है। इसे केवल मुस्लिम तुष्टिकरण से भी आंकना गलत होगा। हाँ यह अवश्य है कि मुस्लिम तुष्टिकरण के कारण ही तृणमूल 80 से अधिक सीट जितने में सफल रही। परन्तु तृणमूल समर्थकों ने जिन अन्य सीटों पर ममता को विजय दिलवाई उसमें तृणमूल का समर्थकों को संरक्षण देने का व्यवहार ही विजयी हुआ है। 2016 के चुनाव में 211 सीट जितने वाली तृणमूल इस बार 213 सीट जीती इसे उसकी राजनीति की ही विजय कहेंगे। जन सामान्य सत्ता पक्ष के एकदम विरोध में नही आता जब तक उसे पूरा भरोसा नही होता कि वह और उसका परिवार सुरक्षित है, तृणमूल ने जनता के इस डर का लाभ उठाया और भाजपा यह यकीन दिलाने में पीछे रह गई। इसके साथ ही अपने लोगों को लाभ दें, कि तृणमूल की नीति भी यहां विजय का मुख्य कारण रही। तृणमूल समर्थक चाहे जो अपराध करे, राजनीति उसकी सुरक्षा के लिए मुस्तेद रहती है बंगाल में। यही कारण है कि तृणमूल समर्थक बिना किसी डर के भाजपा कार्यकर्ता व ऑफिस पर हमला करते रहते है। भाजपा को इस विजय से संतुष्ट न होकर आगे की तैयारी और अपने समर्थकों के संरक्षण की योजना बनाकर आगे बढ़ना चाहिए।

— मंगलेश सोनी

*मंगलेश सोनी

युवा लेखक व स्वतंत्र टिप्पणीकार मनावर जिला धार, मध्यप्रदेश