बालकविता : गरमी के दिन
गरमी के दिन आते ही,
सूरज का चढ़ता पारा।
ओह हाय ऊफ़ तौब़ा,
करने लगता जग सारा।
तन से छूटता पसीना,
भीग जाते कपड़े सारे।
पानी न पीने से फिर,
बहुत होते लफड़े प्यारे।
पतले सादे कपड़े पहनें,
तन को शीतल रखने।
ठंडे पानी से ही नहाएँ,
मन को सबल रखने।
अंगूर तरबूज खरबूज का,
अरे मजा खूब उड़ाएँ।
दाल रोटी और भात,
हरी सब्जी खूब खाएँ।
खाएँ पीएँ खेलें कूदें,
तन मन ठीक ठाक रहे।
हो चाहे भीषण गरमी,
सर्वत्र हमारी धाक रहे।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”