वात्सल्य की मूर्ति होती है मां
मां दिवस दुनिया की सभी माताओं को नमन का दिन होता है। मां शब्द ही दुनिया में प्रकाश पर्व की तरह होता है। मां की प्रशंसा करना सूरज को रोशनी दिखाने के समान होता है। किंतु मां की प्रशंसा में स्तुति तो हम जरूर कर सकते हैं। मातृ दिवस मनाने की परंपरा 400 वर्ष पुरानी बताई जाती है। मातृ दिवस की शुरुआत पुराने ग्रीस से उत्पन्न मानी जाती है। जो ग्रीक देवता की मां के सम्मान में मनाया जाता है तो रोम तथा अमेरिका में भी अलग-अलग तारीखों में मातृ दिवस मनाया जाता है। बताया जाता है कि 1870 में सर्वप्रथम अमेरिका में ‘मातृ दिवस’ के रूप में मनाया गया था। हमारे देश भी कभी मातृसत्तात्मक रहा था। शास्त्रों में कहा गया -“मात्तृ देवो भव:”अर्थात् माता आदरणीय ही नहीं बल्कि भगवान की तरह पूजनीय है। वही हमें इस दुनिया में लाई है। माता साक्षात् ईश्वर का दूसरा रूप है। माता दिवस को एक पावन उत्सव के रूप में मनाने की अति आवश्यकता है। बालक जब मां से जन्म लेता है और प्रथम शब्द का उच्चारण में मां शब्द ही पुकारता है। बच्चे की दुनिया एक मां ही होती है। मां शब्द धरती मां से भी जुड़ा हुआ है जिसे हम जन्म देने वाली मां के बाद दूसरी मां के रूप में लेते हैं। मां शब्द में संवेदना है। एहसास है ।आभास, प्रभाव, विश्वास है। भावनाएं हैं। सम्मान है। मां के कर्ज को कभी चुकाया नहीं जा सकता। मां अपनी संतान की प्रथम शिक्षिका होती है। मां वात्सल्य की मूर्ति होती है। माता का प्यार बच्चे की जीवन में पहला प्यार है। मां से सीखा हुआ आदर्श प्यार ही बच्चे को जीवन में काम आता है। मां जन्म के बाद में अपनी संतानों को संस्कारों से दुनिया में जीवन जीने की कला सिखाती है। जो मां के द्वारा दी गई सीखें अपनी संतानों की विरासत है। मां से हमें शक्ति, भक्ति और संस्कारों पहचान मिलती है। आज संस्कारों की खेती में गिरावट आ गई है। आज सेरोगेसी मां की बातें की जा रही है जो एक महिला और दंपत्ति के मध्य का करार है। अर्थात् एक बच्चे के जन्म तक एक महिला की किराए की कोख। जोकि प्रकृति और संस्कृति के विरुद्ध माना जाता है तो दूसरी ओर अपनी स्वार्थ पूर्ति में लगे लोग अपने बच्चों को बोतल के दूध के सहारे जिंदा रखना चाहते हैं। जिससे समाज में विकृति पनपती देखी जा रही है।मां से बच्चा जन्म लेकर मां के नाम की गाली देता है। मां का सम्मान करने के बजाय मां की ‘नारी जाति’को बदनाम करता है। कुदृष्टि से देखता है। नशा करता है। बलात्कार करता है। आज मां के संस्कारों की खेती में गिरावट जरूर आ गई है। नारी का सम्मान करने पर ही माता का दिवस सही मायने में मनाना सफल माना जाएगा।मां अपने रक्त की हर बूंद से अपनी संतानों को सिंचती है और संस्कारों के मरहम से संवारती है। अपने गृहस्थ रूपी तपोवन पाल पोस कर बड़ा करती है। बच्चा पैदा होता है तब पहला रुदन संगीत होता है।जिसे मां के कानों में गुंजित करता है जो मधुर गान की तरह मां को प्रफुल्लित कर देता है और मां मुस्कुरा देती है।मां का संसार अपनी संताने हैं। बच्चों का सुख- दुख मां का सुख दुख हो जाता है। वहीं इसका संसार है। इस संसार में हमें लाने का पुनीत कार्य यदि कोई खूबसूरती से करता है तो वह मां ही है जो अपने शरीर के चमड़े को गला देती है। यह कार्य पिता नहीं कर सकता था। इसलिए खुदा ने मां को बनाया। मां घर हे तो पिता आंगन है। पिता कवच है तो मां दिल है।मां ही है जो अपनी संतानों के लिए पूरी जिंदगी को समर्पित कर देती है।जितने भी महापुरुष हुए उनकी मां कि ही जीवन में बड़ी भूमिका है। मां का रिश्ता दुनिया में सबसे न्यारा और प्यारा है।मां की संपत्ति ही बच्चे होते हैं। सर्वप्रथम अपनी संतानों में मानवता, दया, प्रेम, ममता, वात्सल्य, ममता,त्याग के बीजों को बोने वाली इस दुनिया में वात्सल्य की जननी एक मां ही होती है जो मनुष्य जीवन की बगिया के रूप में सजाती है। हर धर्म में मां का स्थान सदा ऊंचा है।एक मां का महत्व दुनिया में बड़ा महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि मां के बिना दुनिया ही अधूरी है। माता का दिवस एक उत्सव से कम नहीं मानना चाहिए।माता अपनी संतान को पाकर अमीर हो जाती है क्योंकि मां के लिए अपनी संतान संपत्ति है। सब कुछ है। किंतु अपनी संस्कारवान संतान की उन्नति को देखकर वह अपनी अनमोल पूंजी को पाकर और भी गद्गद् हो जाती है। जिसको शब्दों में बयान करना संभव नहीं है।
मां कभी दवा बन जाती है तो कभी दुआ। हमने ईश्वर को नहीं देखा है किंतु मां में उसके रूप को जरूर देखा है। इसीलिए उसने हमें हमारा प्रथम मिलन मां से करवाया है। बिना कहे भी अपनी संतानों को पढ़ लेती है।वह अनोखा गुण मां में ही होता है। मां अपनी हंसी,नींद ,खुशी, भूख सब अपनी दौलत रूपी संतानों पर हंसते-हंसते कुर्बान कर देती है।एक मां ही है जो नि:स्वार्थ भाव से अपने को बुझा देती है और अपनी संतानों को जला देती है एक दीपक की भांति। नींव का पत्थर बन जाती है। वह मीठे झरने के समान होती है जिस अमृत को पीकर अपनी औलाद धन्य हो जाती है। मां के बिना यह सृष्टि अपंग है। अधूरी है। मां सुरक्षा हित ढाल के समान है तो परिस्थितियों में लड़ने वाली धारदार,वारदार हथियार होती है।मां मानव जीवन के लिए एक संस्कृति,सभ्यता एवं संस्कार की प्रथम पाठशाला के समान होती है। मां कष्टों में प्रार्थना की मधुर बोल के समान है।वह पालक सृजनकर्ता, नव निर्माण कर्ता होती है। मां शब्द अमृत के ताल जैसा है। मां की चरण वंदना तीर्थों के तीर्थ समान है। माता का प्यार सारा आकाश है तो मां का दर्द पाताल है। मां अपनी संतानों को एक मूर्ति की भांति घड़ती है और त्याग ,तपस्या ममता की मंत्र-साधना से आकार देती है।रुप देती है।अपनी सेवा शुश्रूषा से पालती है।यदि अपनी संतानों को समझने की शक्ति रखती है तो पालने की भक्ति में सदा कर्म रूपी हवन में रत रहती है। कष्टों में दुख-दर्द में भी मुस्कुराती है अपनी संतानों को देखकर तो गमों को भूलाती है और प्यार के सागर में डूबोती है और अपने आशीषों से उबारती है। हौसलों की पतवार बनाकर भवसागर में तेरा ना सिखाती है। *”मां तुझे तोलने के लिए वह तुला कहां से लाऊं?
मां शब्द ही इतना भारी है कि दुनिया पूरी फिर भी अधूरी है।”*
— डॉ.कान्ति लाल यादव