कविता

दीवार

दिल बहुत दुखी होता है
शायद स्वभाव है मेरा
जब देखता हूं
एक भाई को दूसरे से लड़ते हुए
एक ही बाप के दो बेटों को
खींच देते है दीवारें
अपने ही आंगन के बीच
कट जाता है वो नीम का पेड़
जिसके नीचे खेलते थे मिलकर साथ साथ
खींच लेते है वो हाथ
जो कभी एक दूसरे आंसू के आंसू पोंछते थे
एक साथ बैठ खाते थे मां की परोसी रोटियां
एक गिरता था तो दूसरा सहारा था
भाई का भाई के घर आना
हो गया बन्द
जब से आंगन में दीवार बन गई
हंसता हूं दीवानों की तरह
अट्टहास करता हूं
हाहाहाहाहा
उनके ढौंग को देखकर
दान करने को निकले हैं
दान देकर कर रहे दिखावा
पर उनको सुनाई देती नहीं
अपने से सटी दीवार के पार की आवाज
सुनाई नहीं देता बराबर का रुदन
जैसे कानों में शीशा उड़ेल लिया हो
अपने दिखने लगे है गैर
गैर अपने लगने लगे हैं
नहीं बढ़ता हाथ अपनों की मदद को
दो पैसे न निकलेंगे उसके लिए
जो गैर है जिसकी मदद को
लोग पहले से तैयार हैं
उनके लिए बना फिरता दानवीर है

*ब्रजेश गुप्ता

मैं भारतीय स्टेट बैंक ,आगरा के प्रशासनिक कार्यालय से प्रबंधक के रूप में 2015 में रिटायर्ड हुआ हूं वर्तमान में पुष्पांजलि गार्डेनिया, सिकंदरा में रिटायर्ड जीवन व्यतीत कर रहा है कुछ माह से मैं अपने विचारों का संकलन कर रहा हूं M- 9917474020