गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

जवाब उनसे सवालों का जब दिया न गया
हमीं ने बात बदल दी जो कुछ कहा न गया।।
तेरे बगैर इरादों ने ख़ुदकुशी कर ली
बहुत करीब थी मंज़िल मग़र चला न गया।।
मैं,जानती तो थी मिलने जरूर आओगे
मैं,दौड़कर चली आई,सुनो रहा न गया।।
मैं अपने दिल की ज़रा सी ये बात कह न सकी
थी चाह मुझको भी इक घर की पर, कहा न गया।।
जो तेरे घर की तरफ मुझको लेके जाता था
इन आँखों से मेरी अब भी वो रास्ता न गया।।
अटे पड़े थे चनारों से रास्ते सारे
पनीली आँखों से मंज़र हरा भरा न गया।।
— माधुरी स्वर्णकार

माधुरी स्वर्णकार

शिक्षा : Bsc, biology आधुनिक समय के संघर्षों से जूझते हुए नारी मन की अभिव्यक्ति को अपने काव्य में समाहित कर आपने पिछले वर्षों में काव्य में उल्लेखनीय कार्य किया है । कई साझा संकलनों का संपादन किया । और कई साझा संकलनों में रचनाएं प्रकाशित ।विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित । एक ग़ज़ल संग्रह शीघ्र प्रकाश्य प्रकाशित कविता संग्रह- "उद्गम से संगम तक"