कविता

इंसानी कीमत

समय का फेर देखिए
इंसानों की बेबसी देखिये,
सब कुछ होकर भी
कितना असहाय है।
कुदरत की लीला देखिये
धन, दौलत, परिवार, लोग
रुतबा, दोस्त यार सब कुछ है,
जिनके एक इशारे पर
हवाएं रुख बदल देती थीं,
आज उसे चारों ओर
अँधेरा ही दिखता है,
अपने भी दूर दूर से
तमाशा देख रहे हैं,
मर गये तो रिश्ते नातों की
परवाह के बगैर
अपने भी दूर हो रहे हैं।
इंसान की कीमत शून्य हो गई है
रिश्तों के साथ इंसानों की
संवेदनाएं मर सी गई हैं।
मृत्यु भय से सांत्वनाएं भी
दम तोड़ रही हैं,
जीते जी जो हुआ,जैसा हुआ
भूल ही जाइए,
मर गये तो लाशों का भी सौदा हुआ।
कुत्तों की लाशों से भी बदतर
जाने कितनी लाशों संग
व्यवहार हुआ।
भरा पूरा परिवार जो कल तक
जिसकी बदौलत मस्त रहा
शानोशौकत से जीता रहा ,
आज उसकी लाश को
कंधा भी न नसीब हुआ।
फिर भी इंसान यथार्थ से
कितना भाग रहा है,
जहाँ में अकेला आया था
अकेला ही रहा है
जायेगा भी अकेला ही,
फिर भी बेशर्मी से
आँखे फेर रहा है,
इंसानी कीमत
लगातार गिर रही है,
समय का ही तो फेर है
इंसानों की अब तो जैसे
कोई कीमत कहां रही?

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921