अविस्मरणीय योगदान
लगभग 25 करोड़ आबादी को प्रभावित कर रहे महान संत महर्षि मेंही और उनके फैलाये संतमत-सत्संग उनके ब्रह्मलीन (निधन) के 35वें वर्ष भी आज बिहार, झारखंड और नेपाल में जिस भाँति से फल-फूल रहे हैं, उनमें संत मेंहीं के योगदान के साथ-साथ बाद के वर्षों में उनके शिष्यों में महर्षि संतसेवी, आचार्य शाही स्वामी, आचार्य हरिनंदन बाबा, श्री दलबहादुर दास इत्यादि के अविस्मरणीय योगदान भी समादृत हैं।
बिहार के मधेपुरा जिले में 1885 के वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को जन्म, पूर्णिया जिला स्कूल में पढ़ाई, तो अपने वर्गमित्र श्रद्धेय मधुसूदन पॉल ‘पटवारी’ के साथ मुरादाबाद (उ.प्र.) के संत बाबा देवी साहब से दीक्षित हो रामानुग्रहलाल से ‘मेंहीं’ बन वे कटिहार ज़िला के नवाबगंज और मनिहारी को कर्मभूमि बनाए। उनके अनन्य शिष्य महर्षि संतसेवी की कर्मभूमि भी मनिहारी रहे, जहाँ वे सद्गुरु की सेवा के साथ -साथ बच्चों को पढ़ाया भी करते थे।
‘सब संतन्ह की बड़ी बलिहारी’ केन्द्रित सब संतों के मत ‘संतमत-सत्संग’ का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार कर लोगों में झूठ, चोरी, नशा, हिंसा, व्यभिचार तजना चाहिए’ का अलख जगाये । फिर नादानुसंधान, सुरत-शब्द-योग और ध्यानयोग-साधना कर कुप्पाघाट (भागलपुर) में पूर्णज्ञान-प्राप्त किए। कई तुलनाओं के आधार पर महर्षि मेंहीं को महात्मा बुद्ध का अवतार भी माना जाता है।
दिनांक 8 जून 1986 को महापरिनिर्वाण (मृत्यु) प्राप्त किये। महर्षि जी के उल्लेखनीय आध्यात्मिक-पुस्तकों में ‘सत्संग-योग’ की चर्चा चहुँओर है, यह चार भागों में है । इसे भौतिकवादी व्यक्तियों को भी पढ़ना चाहिए। महर्षि संतसेवी परमहंस संतमत के आचार्य रहे हैं और वे महर्षि मेंहीं के प्रधान शिष्य थे। उनके अमृत महोत्सव समारोह में भारतरत्न अटल बिहारी वाजपेयी जी भी उनके बारे में विशद विवेचन किये हैं, जो महर्षि संतसेवी परमहंस को समर्पित अभिनंदन ग्रंथ में प्रकाशित है।