खतरे में मानवता
जिंदा लोगों से अच्छा
नदियों के सतह पर
वो तैरती लाशें
बालू के ढ़ेर में
दबी हुई लाशें
आंकड़ों से वंचित
भटकती हुई लाशें
बता रही हैं खामोशी में
कोई धर्म नहीं
कोई जाति नहीं
कोई राम नहीं
कोई रहीम नहीं
बल्कि
खतरे में है मानवता
आज समझ में आया
धर्म-कर्म के नाम पर
लूटेरों ने जन-धन को खाया
नैतिक पतन की चरम सीमा
पार कर चुके सत्ताधारी
विफलता के कंधों पर
आराम से बैठ कर
सफलता का आलाप करता
जन-धन का दुरुपयोग करता
खड़ा होकर खामोशी में
राजा देख रहा प्रजा को मरता।
©️रमेश कुमार सिंह रुद्र ®️