ग़ज़ल
अपनी खुद्दारी अपनी कलम कभी नहीं बेचेगी
तूफानों से टकराकर भी घुटने कभी न टेकेगी।
सीना चीर के धरती का हम अपनी राह बना लेंगे
हों लाख राह में चट्टानें नदिया को कैसे रोंकेगी
कितने बादल उमड़े घूमडे़ सूरज झांप नहीं सकते
जिस दम सूरज निकलेगा तपन ये दुनिया देखेगी।
ये माना कि मैं मिट्टी हूं पर उपज हमीं से जिंदा है
तुम हीरा हो तो क्या है दुनिया माटी ही पूजेगी।
महफिल में हंसाने को मैं एक तमाशा हूं लेकिन
हम न रहे तो बाद हमारे हमको दुनिया पूछेगी ।
कोई चाहे हमें ना चाहे इसकी हमको परवाह नहीं
तेरे शहर से जब जाऊंगी हर डगर राह मेरी रोंकेगी।
कुछ और न कर पाऊं तो क्या दिल जीतना हमको आता है
इस जहां की है या उस जहां की है जानिब यह दुनिया सोचेगी।
— पावनी जानिब