मजदूर
सीने में जख्म लिए
चेहरे पर मुस्कान,
माथे पर पसीना
करता नवनिर्माण ।
अपनों से दूर
सपनों में खोकर
गीत नया गाता
भरपेट नहीं खा पाता ।
टूटता-बिखरता
पर भय नहीं खाता
वह सीधा-साधा
जग मजदूर उसे कहता ।
वो आज भी रंक बना
कितने राजा पैदा हुए
पर उसने अपमान ही सहे
दर्द अपना किसी से न कहा…?
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा