सब संतन्ह की बलिहारी को नमन
बीसवीं सदी के बुद्ध ‘महर्षि मेंहीं’ की उल्लेखनीय आध्यात्मिक-पुस्तकों में ‘सत्संग-योग’ की चर्चा चहुँओर है, यह चार भागों में है । भगवान बुद्ध प्रणीत धर्मग्रंथ ‘धम्मपद’ को हर भौतिकवादी व्यक्तियों को भी पढ़ना चाहिए, जो पाली भाषा में है । विकिपीडिया के अनुसार, बुद्ध के प्रथम गुरु आलार कलाम थे, जिनसे उन्होंने संन्यास काल में शिक्षा प्राप्त की । सिर्फ 35 वर्ष की आयु में वैशाख पूर्णिमा के दिन सिद्धार्थ पीपल वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ थे। बुद्ध ने बोधगया में निरंजना नदी के तट पर कठोर तपस्या की तथा सुजाता नामक लड़की के हाथों खीर खाकर साधना तोड़े ! समीपवर्ती गाँव की सुजाता को पुत्र प्राप्ति पर वह बेटे के लिए एक पीपल वृक्ष से मन्नत पूरी करने के लिए सोने के थाल में गाय के दूध की खीर भरकर पहुँची। सिद्धार्थ तब ध्यान कर रहे थे, उसे लगा कि वृक्षदेवता ही मानो पूजा लेने के लिए शरीर धरकर बैठे हैं। सुजाता ने बड़े आदर से सिद्धार्थ को खीर भेंट की और कहा, “जिसतरह से मेरी मनोकामना पूरी हुई, उसी तरह आपकी भी हो।” कहते हैं, उसी रात्रि ध्यानबद्धता पर सिद्धार्थ की साधना सफल हुई और वे बुद्ध हो गए। गौतम बुद्ध व राजकुमार सिद्धार्थ के पिता राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के लिए भोग-विलास का भरपूर प्रबंध कर दिया। तीन ऋतुओं के लायक तीन सुंदर महल बनवा दिए। वहाँ पर नाच-गान और मनोरंजन की सारी सामग्री जुटा दी गई। दास-दासी उसकी सेवा में रख दिए गए।
सनद रहे, उपर्युक्त उद्धृत दशाएँ सिद्धार्थ को संसार में बाँधकर नहीं रख सके ! कई के मुखजुबानी कहानी है, जो विकिपीडिया में भी है कि एकबार किसी दिन सिद्धार्थ बगीचे की सैर पर निकले थे । उन्हें सड़क पर एक बूढ़ा आदमी दिखाई दिया। उसके दाँत टूट गए थे, बाल पक गए थे, शरीर टेढ़ा हो गया था। हाथ में लाठी पकड़े धीरे-धीरे काँपता हुआ वह सड़क पर चल रहा था। दूसरी बार कुमार जब बगीचे की सैर को निकला, तो उसकी आँखों के आगे एक रोगी आ गया। उसकी साँस तेजी से चल रही थी। कंधे ढीले पड़ गए थे। बाँहें सूख गई थीं। पेट फूल गया था। चेहरा पीला पड़ गया था। दूसरे के सहारे वह बड़ी मुश्किल से चल पा रहा था। तीसरी बार सिद्धार्थ को एक अर्थी मिली। चार आदमी उसे उठाकर लिए जा रहे थे। पीछे-पीछे बहुत से लोग थे। कोई रो रहा था, कोई छाती पीट रहा था, कोई अपने बाल नोच रहा था। इन दृश्यों ने सिद्धार्थ को बहुत विचलित किया। उन्होंने सोचा, “धिक्कार है जवानी को, जो जीवन को सोख लेती है। धिक्कार है स्वास्थ्य को, जो शरीर को नष्ट कर देता है। धिक्कार है जीवन को, जो इतनी जल्दी अपना अध्याय पूरा कर देता है। क्या बुढ़ापा, बीमारी और मौत सदा इसी तरह होती रहेगी सौम्य !” चौथी बार सिद्धार्थ बगीचे की सैर को निकला, तो उसे एक संन्यासी दिखाई पड़ा। संसार की सारी भावनाओं और कामनाओं से मुक्त प्रसन्नचित्त संन्यासी ने सिद्धार्थ को आकृष्ट किया। इन सब कारकों ने ही सिद्धार्थ को बुद्ध बनाया!