आरटीआई को कमजोर कर रही सरकार !
केंद्र और राज्य यानी दोनों सरकार आरटीआई को कमजोर कर रही (गृहमंत्री के बोल वचन में सच्चाई छिपा) इधर आरटीआई एक्ट में संशोधन सिर्फ सूचना आयुक्तों की सेवा-शर्त्तों से जुड़ी हुई है । उनकी नियुक्ति प्रकिया अब– चाहे वो राज्य सूचना आयोग के सूचना आयुक्त ही क्यों न हो, केंद्र सरकार के अधीन हो गई है !
पहले भी राज्य सरकार द्वारा नियुक्त सूचना आयुक्त उक्त राज्य सरकार के हित में ही द्वितीय अपील में सुनवाई करते थे ! ध्यातव्य है, आरटीआई भी कानून है, जिनमें संशोधन संसद द्वारा अन्य संशोधन की भाँति होते हैं ! सूचना व जानकारी देने में दोनों सरकार कोताही बरतते हैं, एक साँपनाथ है तो दूजे नागनाथ !
बहरहाल, हम किसी भी सरकारी वित्तपोषित मंत्रालयों, विभागों व संस्थानों से सूचनार्थ माँग कर सकते हैं, उनमें पीएमओ भी शामिल है । इधर ही मैंने प्रधानमंत्री कार्यालय से सूचनाएँ मंगवाई है, तथापि सूचना के अधिकार के प्रति केंद्र सरकार, सभी राज्य सरकार और सभी पूर्ववर्त्ती सरकार भी एक जैसे रवैये अपनाए हुए हैं !
नीतीश कुमार ने 150 शब्द-सीमा तय कर अपनी मंशा जाहिर कर चुके हैं, अरविंद केजरीवाल की सरकार भी अब शीघ्र सूचनाएँ उपलब्ध नहीं करा रही, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने किसी सभा में यह कहकर आरटीआई कानून के लिए प्रश्नवाचक चिह्न डाल दिए कि आरटीआई किसी को खाना थोड़े ही देती हैं !
गृह मंत्री अमित शाह की मंशा भी नींद उड़ानेवाला ! अभी भी भारत में सिर्फ 3% लोग ही इस कानून के तहत सूचनाएं मंगा रहे हैं, इसलिए बहुत बड़ी संख्या में हम मिलकर ही सरकार की मंशा पर पानी फेर सकते हैं, तो वहीं आरटीआई एक्टिविस्टों की हत्या पर हमें एकजुट होकर सरकारों को घेरने होंगे !
यह भी सच है, कुर्सी पाने के बाद नीति-नियंता भी बेईमान हो जा रहे हैं। आरटीआई के पथ-प्रदर्शक अरविंद केजरीवाल को ही देखिये…. कटिहार के डीपीओ के वेतन से ₹25,000 कटे या नहीं, पता नहीं ! क्या यह भ्रष्टाचार (भ्रष्ट आचरण) नहीं है?