लघुकथा – बरगद का वह पेड़
बहुत अर्से के बाद मैं अपने शहर आई हुई थी। बचपन की यादों के फ्रेम में जो तस्वीर शहर की जकड़ी हुई थी वह तो पूर्णतः बदल चुकी थी।
मैं सदर बाज़ार में खड़ी हुई हैरत से बड़ी -बड़ी शानदार इमारतों को देख रही थी। जहाँ विशालकाय वट वृक्ष था ।वहां अब विशालकाय शानदार मॉल पहाड़ की तरह कई माले में खड़ा हुआ मुझे चिढ़ा रहा था। मैं बरगद की जड़ो में अपना अस्तित्व तलाशने में लगी हुई थी।
तभी मेरे साथ आईं मेरी दीदी ने बड़े गर्व से कहा,”अरे, क्या सोचने लगी।चल तुझे हमारे शहर का यह शानदार मॉल घुमाती हूँ।”
मैंने कहा, दीदी,वह बरगद का पेड़ कहाँ गया जो पहले यहां हुआ करता था। जिसकी लटों में झूलकर हम बड़े हुए?
“हाँ, वह काट दिया गया।”
पर क्यों?
क्यों कि उसका अब यहां कोई काम नहीं था ।उस बूढ़े बरगद ने शहर का यह बहुत सा हिस्सा घेर रखा था फिर उससे कचरा भी बहुत फ़ैलता था ।देखो उस बूढ़े बरगद को काट कर यहां कितना सुंदर मॉल बन गया जो हमारे शहर की शान है।
दीदी ने जैसे खुश होते हुए यह बात कही।
मैं मन मसोस कर रह गई।
तभी मुझे मेहबूब अली खां दिखे। उनको देखते ही मेँ ख़ुशी के मारे चिल्ला पड़ी।”मामूजान,मामूजान”।
मेहबूब अली पूरे गली में मामूजान के नाम से पुकारे जाते थे। उन्होंने अपनी बूढ़ी आँखों से मुझे देखा। उन्होंने मुझे पहचानते हुए मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फेरते हुए पूछा ,” अरसे बाद आई हो बिटिया। कैसी हो?”
मैंने कहा, सब ठीक है मामूजान। मैंने देखा कि आलीशान मॉल से सटा हुआ उनका कवेलू वाला छोटी सी दुकान अभी भी वहाँ मौजूद था। उनकी कच्ची और पुरानी दुकान पर जरूर एक नया बोर्ड टंगा हुआ था । जिस पर लिखा था।’ घड़ी साज की दुकान’। यहां नई – पुरानी घड़ियों की मरम्मत की जाती है।
मैंने उनसे पूछा, मामूजान,अब तक आपकी यह दुकान चल रही है। अब इस डिजीटल दुनिया में भला कौन घड़ी सुधरवाने आपके दुकान आता होगा?
मेरे इस प्रश्न से वे मायूस से हो उठे। उन्होंने कहा,”हाँ बेटा, तेरा कहना ठीक है पर सन, उन्नीस सौ पचास से यह दुकान मेरे अब्बा हुजूर ने मुझे सौंपा था।इसी दुकान की बदौलत मैंने खूब तरक्की की।दो-दो बेटियों की शादी की। बेटों को पढ़ाया- लिखाया परन्तु अब जमाना बदल गया है ।अब न वैसी घड़ी रही न घड़ी साज। यह दुकान तब पूरे सदर में बहुत मशहूर थी।आज इस दुकान को इन मॉल वालों ने मुँहमाँगा दाम में खरीदने की बहुत कोशिश की पर यह दुकान मेरे पिता की अमानत है।मैं इसे कैसे बेच दूँ?”
इस दुकान से आपको कितनी आमदनी हो जाती होगी? मैंने पूछा।
उन्होंने हँसते हुए कहा,” यह दुकान आमदनी के लिए नहीं है। यह दुकान तो हमारी पहचान है। बस हम अपनी पहचान खोने देना नहीं चाहते हैं। इसलिए ये दुकान मेरे जीते जी कभी बंद नहीं होगी। थोड़े खेत हैं। उनसे हमारा गुजारा हो जाता है।”
अनायास मुझे उस बूढ़े बरगद की याद हो आई।
— डॉ. शैल चन्द्रा