स्वदेशी की परिभाषा
स्वदेशी के नाम पर आजकल बहुत हो-हल्ला हो रहा है । जिसे देखो, वही स्वदेशी की बात कर रहा है । नेताजी के भाषणों में स्वदेशी शहद की तरह टपकता है । बाबा रामदेव जी महाराज ने तो स्वदेशी के नाम पर ही अपना सारा कारोबार खड़ा किया है । वैसे भारत में और भी बाबा हैं जो स्वदेशी की दुकान लगाए बैठे हैं, परंतु उन बेचारों का सामान रामदेव की तुलना में बेहद कम ही बिच पाता है । अधिकांशतः उनके चेले-चपाटे ही खरीदते हैं । आजकल स्वदेशी वह दुधारू गाय है, जिसका दूध हर ऐरा-गैरा निकालना चाहता है और स्वदेशी की आड़ में अपनी तिजोरियां भरना चाहता है ।
स्व. राजीव दीक्षित जी ने स्वदेशी की परिभाषा कुछ इस तरह से दी थी – स्वदेशी वो जो प्रकृति और मनुष्य का शोषण किए बिना अपनी सनातन-वैदिक संस्कृति और सभ्यता के अनुकूल आपके स्थान के सबसे निकट किसी स्थानीय कारीगर द्वारा बनाई गई या कोई सेवा दी गई हो और जिसका पैसा स्थानीय अर्थव्यवस्था में प्रयोग होता हो वह स्वदेशी है । जैसे – कुम्हार, बढ़ई, लौहार, मोची, किसान, सब्जी वाला, स्थानीय भोजनालय, धोबी, नाई, दर्जी अन्य कोई कारीगर द्वारा उत्पादित वस्तु या सेवा दी गई हो या निर्माण किया गया हो । कुल मिलाकर लघु स्तर को ही स्वदेशी कहा जा सकता है । बड़ी-बड़ी कंपनियों के उत्पाद उद्योग होते हैं न कि स्वदेशी । ये कंपनियां विदेशों से कच्चा या सस्ता माल खरीदकर महंगे मूल्य में बेचती हैं । क्या हम इसे स्वदेशी कह सकते हैं ।
टाटा, बिरला, रिलायंस-अंबानी, अदानी, पतंजलि आदि बड़ी कंपनियों के उत्पाद देशी तो हो सकते हैं, लेकिन स्वदेशी कतई नहीं ।स्वदेशी वह अति लघु उत्पाद है जिसे स्थानीय लोगों द्वारा निर्मित किया जाता है, स्थानीय लोगों के लिये ।
करोड़पति को अरबपति बना देना कभी स्वदेशी नहीं हो सकता और अरबपति को खरबपति बना देना देश को रसातल में पहुंचाना ही हुआ । चंद मुट्ठी भर लोगों को देश की अधिकांश संपत्ति का मालिक बनाना देशहित में कभी नहीं होता । कंपनियां हमेशा छोटे कारीगरों-मजदूरों का शोषण करती हैं, वे चाहे देसी हो या विदेशी । कंपनियों के उत्पाद देसी, विदेशी तो हो सकते हैं पर स्वदेशी कतई नहीं । आशा है सभी मित्र स्वदेशी का अर्थ समझ गए होंगे । बाबा रामदेव सहित तमाम बाबाओं के उत्पाद देशी हैं स्वदेशी नहीं!
— मुकेश कुमार ऋषि वर्मा