लेखसामाजिक

एक बुराई है……..विचार-विकृति

मित्रों! अपने विचारों को विकृत होने से बचाइये । इस समय विचारों की विकृति हमें अवसाद की गहरी खाई में गिरा सकती है। जिसमें से निकलना लगभग असम्भव हो सकता है। विचार-विकृति से बढ़कर हमारा और कोई शत्रु नहीं है। इस शत्रु की चोट इतनी असहनीय और भयावह होती है कि व्यक्तित्व को बुरी तरह तोड़.मरोड़ कर रख देती हैं और मनुष्य समस्याओं की उलझनों से जकड़ा हुआ नारकीय आग में हर घड़ी जलता रहता है।

अपने विचारों पर संयम रखते हुए उन्हें सशक्त बनाना ही इस समय की माँग है । इसी सन्दर्भ में एक प्रसंग याद आता है एक गाँव में एक लकड़हारा था। एक बार वह लकड़ियाँ काटने जंगल में गया । लकड़ियाँ काटते हुए थकान अनुभव होने पर उसने सोचा क्यों न किसी पेड़ की छाया में थोडा सुस्ता लूँ । ये विचार कर वह एक पेड़ की छाया में लेट गया अचानक उसके मन में विचार आया की काश! यहाँ थोड़ा सा भोजन और मिल जाता तो कितना अच्छा होता उसने ये सोचा ही था कि स्वादिष्ट व्यंजनों से भरी एक थाली पेड़ से उतर कर उसके सामने आ गई लकड़हारा भोजन देखकर आनंदित हो उठा और उसने तुरंत भोजन की थाली को अपने हाथों में उठा लिया और भोजन का आनंद लेने लगा।  भोजन के बाद लकड़हारे को नींद आने लगी। उसने सोचा काश! भोजन के बाद आराम करने के लिए एक खटिया मिल जाती तो कितना अच्छा होता उसने ये सोचा ही था की पेड़ पर से एक आरामदायक खटिया उतर कर उसके सामने आ गई ।

लकड़हारा बड़ा प्रसन्न हुआ और वह सो गया थोड़ी देर बाद जब उसकी नींद खुली तो उसे इस घटना पर आश्चर्य हुआ । उसने विचार किया कि मैंने जो भी इच्छा की वह सभी वस्तुएँ इस पेड़ से उतर कर आती रहीं और एक के बाद एक मेरी इच्छाएं पूरी होती चली गई ।

अब उसे भय लगने लगा उसे लगा जरूर यहाँ कोई भूत-प्रेत है जो मेरे मन की बात सुन लेता है। कहीं ऐसा न हो कि वह मुझे खा जाए ये सोचकर लकड़हारा वहाँ से जा ही रहा था कि इतने में एक भयानक प्रेत पेड़ से उतरा और उस लकड़हारे को खा गया।

इस प्रसंग से ये स्पष्ट होता है कि हम जिस प्रकार का चिंतन करते हैं प्रकृति उसके अनुसार ही वातावरण बना देती है । जब तक लकड़हारे के मन में सकारात्मक विचार रहे तब तक उसके सामने उसके विचारों के अनुकूल सृष्टि होती रही। लेकिन जैसे ही वह नकारात्मक और विकृत चिंतन की ओर अग्रसर हुआ तो प्रकृति उसके उन्ही मनोभावों के अनुरूप परिवर्तित होती गयी जिसका मूल्य उसे अपने प्राण देकर चुकाना पड़ा ।

हम मनुष्यों के लिए आवश्यक है कि हम अपने विचारों को नकारात्मक चिंतन से बचाकर संयमित करें । स्वयं को निराशा, हताशा और भय से मुक्त रखें । अन्यथा ये ही नकारात्मक भाव हमें ले डूबेंगे । विचारों की विकृति का एक नाम अवसाद भी है ।

यदि कोई व्यक्ति ये सोचे कि मैं तो बीमार हूँ अब कैसे ठीक हो पाउँगा। मैं मर गया तो क्या होगा ? यदि रोगी का चिंतन ऐसा है तो किसी भी डॉक्टर के पास वह औषधि नहीं है जो उसे बचा सके । वहीं इसके विपरीत भयानक रोग से पीड़ित व्यक्ति ये सोचे की रोग तो शरीर में आते जाते रहते हैं, हाँ थोड़ी बहुत परेशानी है कुछ दिनों के उपचार के बाद ठीक हो जाऊँगा और आगे ये परेशानी न हो इसका ध्यान रखूंगा । यदि रोगी का इस प्रकार का चिंतन होता है तो बड़ी से बड़ी बीमारी से भी लोग बचकर आ जाते हैं ।

हमें अच्छे चिंतन के लिए अच्छा एवं प्रेरक साहित्य पढ़ना चाहिए और स्वस्थ मनोरंजन करना चाहिए । ये दोनों माध्यम हमें विचार विकृति से बचाने में सहायक सिद्ध हो सकते हैं ।

पंकज कुमार शर्मा 'प्रखर'

पंकज कुमार शर्मा 'प्रखर' लेखक, विचारक, लघुकथाकार एवं वरिष्ठ स्तम्भकार सम्पर्क:- 8824851984 सुन्दर नगर, कोटा (राज.)