कहाँ गया वो बचपन
मन में जब सपनें बुनते थे,
साँझ सकारे जब मिलते थे।
कहाँ गयीं वो चाँदनीं रातें,
वो अनगिन मीठीं सी बातें।
जानें कहाँ गया वो बचपन,
तुझको ढूँढ़ रहा मेरा मन।
फिर जीवन के तार मिला लूँ,
आजा तुझको गले लगा लूँ।
अक्कड़ – बक्कड़ बम्बे- बो,
अस्सी नब्बे पूरे सौ।
अर्थ न इनका जानें हम,
फिर भी गाते गानें हम।
वो बचपन के खेल तमाशे,
पानी- पूरी और बताशे।
गुड्डा-गुडिय़ा, सौन चिरयैया,
छत के ऊपर छुपम-छुपय्या।
मेरे बचपन फिर से आजा,
आके मुझको धीर बँधा जा।
तेरे बिन न लगता दिल है,
तू ही बस मेरी मंजिल है।
— डॉ प्रवीणा दीक्षित