श्रम का वरण
हाथ का कमाल है कि बोलते पत्थर,
भाग्य निर्बल का भी खोलते है पत्थर।
भगीरथ सा कोई करता श्रम का वरण,
तब होता धरती पर गंगा का अवतरण।
इन्सान में शक्ति पत्थर बन जाते नारी ,
इन्सान में शक्ति धरा नाप ली थी सारी।
उसने नदियों में बांध बनाये कितने,
उसने कर्मों से बांध ली प्रकृति सारी।
देवता भी मनुज होने को परेशान हुये,
कभी राम कभी कृष्ण बनके इंसान हुये।
अब इन्सान ने इन्सान को रखा गिरवी,
कमाल है कि अब इन्सान भी हैवान हुये।
भूल बैठा इन्सान अब पुराने रिश्ते अपने,
मानवीय रिश्तेअब कठिन इम्तिहान हुए।
मतलबी हो गया इन्सान स्वार्थ की खातिर,
जहां मतलब वहां पत्थर में भगवान हुए।
जब तक थी फूल में खुशबू बनाया हार उसे,
सूखे तो पैरों तले कुचलने को मजबूर हुए।
— सीमा मिश्रा