कविता

धरती मां का क़र्ज़ चुकाएं

मत काटो अब जंगल,
जंगल में ही होता मंगल।
पेड़ काटकर तुमने क्या पाया?
जीवन रुपी वायु खो गयी,
सिलेंडर का मोल चुकाया।
कितने प्राणी विलुप्त हो गए,
मानव की नादानी से।
कितने जलस्रोत सूख गए,
अपने ही पानी से।
असमय बाढ़ और सूखा,
आंधी-तूफान है आता।
अपनी गलती पर ऐ दिल,
क्यों नहीं पछताता?
कंक्रीट और एशी की आदत ने,
ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाई।
पिघल रही तेजी से,
बर्फ पहाड़ों पर छाई।
अभी समय है सुधर जा मानव,
वरना पछता भी न पायेगा।
पानी और प्राणवायु की खातिर,
घुट-घुट कर मर जाएगा।
आओ मिलकर पेड़ लगाएं,
धरती मां का क़र्ज़ चुकाएं।
स्वच्छ रखें हम घर-आंगन,
पर्यावरण संतुलित बनाएं।

— अनुपम चतुर्वेदी

अनुपम चतुर्वेदी

वरिष्ठ गीतकार कवयित्री व शिक्षिका,स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार, गजलगो व मुक्तकार,संतकबीर नगर,उ०प्र०