कवितापद्य साहित्य

एक गुलमोहर का इन्तिज़ार है 

उम्र के सारे वसंत वार दिए
रेगिस्तान में फूल खिला दिए

जद्दोजहद चलती रही एक अदद घर की

रिश्तों को सँवारने की

हर डग पर चाँदनी बिखराने की

हर कण में सूरज उगाने की

अंततः मकान तो घर बना

परन्तु किसी कोने पर मेरा कोई रंग न चढ़ा

कोई भी कोना महफूज़ न रहा

न मेरे मन का न घर का

कोई कोना नहीं जहाँ सुकून बरसे

सूरज चाँद सितारे आकर बैठें

हमसे बतकहियाँ करते हुए जीवन को निहारे

धीरे-धीरे हर रिश्ता दरकता गया

घर मकान में बदलता रहा

सब बिखरा और पतझर आकर टिक गया

अब यहाँ न फूल है न पक्षियों के कलरव

न हवा नाचती है न गुनगुनाती है

कभी भटकते हुए आ जाए

तो सिर्फ़ मर्सिया गाती है

अब न सपना कोई न अपना कोई

मन में पसरा अकथ्य गाथा का वादा कोई

धीरे-धीरे वीरानियों से बहनापा बढ़ा

जीवन पार से बुलावा आया

पर न जाने क्यों

न इस पार न उस पार

कहीं कोई कोना शेष न रहा

जाने की आतुरता को किसी ने बढ़कर रोक लिया

और मेरा गुलमोहर भी गुम हो गया

जो हौसला देता था विपरीत परिस्थितियों में अडिग रहने का

साहस और हौसला को ख़ाली मन में भरने का

अब न रिश्ते न घर न गुलमोहर

न इस पार न उस पार कोई ठौर

जीवन के इस पतझर में

एक गुलमोहर का इन्तिज़ार है।

– जेन्नी शबनम (18. 6. 2021)

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