ग़ज़ल
बहुत जल चुका हूँ , अब मुझे बुझाया जाए
इस शहर में कोई नया सूरज उगाया जाए
चाँद बहुत महँगा है हम गरीबों के लिए
हमारी बस्ती में जुगनुओं को बुलाया जाए
आदमी हैं तो आदमी की तरह पेश आएँ
चोट लगे अगर तो फिर चिल्लाया जाए
खूबसूरती खेतों-खलिहानों में टहलती है
देखना है तो गाँवों में मेला लगाया जाए
दाग-धब्बे से हैं हमारे मुल्क के चेहरे पर
गरीबों को किसी भी तरह छिपाया जाए
“विकास” की रफ़्तार जाननी है अगर
तो नाटक – नेपथ्य से पर्दा उठाया जाए
— सलिल सरोज