कविता – शुन्य से अनंत तक परिभाषा
शुन्य से अनंत तक परिभाषा
चैतन्य मन में जागी अभिलाषा
सत्य अंतरमन में चीख रहा है
काल सम्मुख खड़ा दीख रहा है
फिर क्यों अज्ञानी बनके मनुष्य
देता खुद को यूँ मिथ्या दिलासा
शुन्य से अनंत तक परिभाषा
चैतन्य मन में जागी अभिलाषा
अंत:करण का पटल खोल जरा
नादान किस भय से बोल डरा
पंचमहाभूत समाहित तेरे अंदर
दिव्यशक्ति का तू अद्भुत समंदर
एकाग्र तू निज मन को कर ले
महसूस होगा ये दिव्य प्रकाशा
शुन्य से अनंत तक परिभाषा
चैतन्य मन में जागी अभिलाषा
इंद्रियों की तृष्णा का कर दे दमन
आलौकिक कल्पना में कर गमन
भाषा को परिभाषित कर साध ले
छल कपट माया मोह को बांध ले
सम्मुख खडी़ है मुक्ति मानव देख
लेकर अनगिनत देवीय सी आशा
शुन्य से अनंत तक परिभाषा
चैतन्य मन में जागी अभिलाषा
धर्म का मूलमंत्र है तेरे अंतकरण में
गीता ज्ञान मिले पार्थ हरि शरण में
धर्म शीलता से पिघला है पाषाण
संकल्प से मुर्दे में भी फूके है प्राण
मे जाग मनुष्य खुद ही निर्माण कर
अब अर्थहीन शब्दों में मर्मज्ञ भाषा
शुन्य से अनंत तक परिभाषा
चैतन्य मन में जागी अभिलाषा
— आरती शर्मा (आरू)