मन की मधुशाला
लिख सकूँ मैं वेदना
या लिखूँ उल्लास मैं,
प्रेम की संवेदना या
लिखूँ एहसास मैं,
स्नेह की सरिता में बहती
स्वार्थ की धारा लिखूँ!
या, मृगमारिचिका में भटकते
मन की मधुशाला लिखूँ!!
उर में उठती है निरन्तर
नित नई प्रश्नावली,
लेखनी गढ़ती निरंतर
एक नई शब्दावली,
भावनाओं के समंदर को
मैं एक हाला लिखूँ!
मृगमारिचिका में भटकते
मन की मधुशाला लिखूँ!
सात रंगों से सुनहरे
सर्वप्रथम की रंगिनियाँ,
जो न बुझ पायी कभी
उस तृष्णा की बेचैनियाँ,
लालसा और भूख को मैं
विष का एक प्याला लिखूँ!
मृगमारिचिका में भटकते
मन की मधुशाला लिखूँ!!
हार जाती हिय तरंगे
लेखनी की धार से,
वेदना के आँसुओ को
जीत लेते प्यार से,
गर कहो तो मैं पुनः
संवाद की शाला लिखूँ!
मृगमारिचिका में भटकते
मन की मधुशाला लिखूँ!!
— नीरजा बसंती