विरह गीत
सावन बीते पतझड़ बीता,
बीत सजन मधुमास गया
सूना सूना मधुवन कान्हा,
मुरली सुर महारास गया
दृग में पीर भरी है भारी
मन मछली सा तड़प रहा
छूटा तेरा हाथ में में में सजन रे
फूल से भ्रमर बिछड़ रहा
रक्त तेल है प्रेम दीप है
बाती बन दिल है जलता
व्याकुल रहे मेरा हृदय यूँ
शाम ढले सूरज ढलता
चातक बनती विरह वेदना,
हिय का हिस्सा खास गया
न कोयल की कूक सुहाती
भड़काती है आग पवन
हॄदय मानसरोवर पर भी
हंसों का कब हुआ मिलन
मानस पट पर अंधियारा है
उजड़ा उजड़ा मन उपवन
पी अधीर उठती में
चिक दिल की धड़कन
मेघ घुमकर
जयेष्ट जैसे
बाट निहारें थकते नैना,
प्यास बुझे ना हो दर्शन
प्यास बुझेगी कब तक ऐसे
अब बीत सावन मास गया
रात सर्पिणी काट रही तन
लगे चांदनी अब फीकी
तेरे बिन हो मेरे सजना,
लगे रागिनी भी तीखी
लटक रही लट लगती है अब,
नागिन सी जंजाल मुझे
सांसे अब तक क्यों है तुझमें
करते दर्द सवाल मुझे
कँगना पायल देह नोचते
झुमका भी देता ताना
जन्म जन्म का प्यार हमारा,
अब तो साजन आ जाना
कतरा कतरा नेह भरा है,
सांसो तक यूँ एहसास गया
सावन बीते पतझड़ बीता,
बीत सजन मधुमास गया
— आरती शर्मा (आरू)