गीतिका
सोचते रहते वृथा हम ,नही रुकते एक भी पल।
जिंदगी का मूल्य है बस दो मिनट का मौन केवल।
रेशमी गद्दे, महल, वाहन, सभी को छोड़ना है ,
अंत मे विश्राम देगा तुझे माँ धरती का आँचल।
बाँट अमृत प्रेम का तू, मत किसी का अनभला कर!
पाप का और शाप का क्यों पी रहा है तू हलाहल ?
समय के संयोग से कुछ रंक भी नरपति हुए है ,
कई तो फुटपाथ पर है , महल जिनके पास थे कल।
कई तो पद के अहम में ,स्वयं को भी भूल बैठे,
वहमियत का रोग है, कुछ इस कदर हो गये पागल ।
आदमी ही आदमी का खून पीकर पल रहा है ,
‘गंजरहा’ इन बस्तियों से ,आज भी अच्छे हैं जंगल ।
——————————© डॉ. दिवाकर ‘गंजरहा’