हम पत्ते
हम पत्ते , पतझड़ तक जीवन ,फिर मिट्टी हो जायेगा तन ।
मेरे बचपन में बसंत ने, पिता सरिस है मुझको पाला ।
डाली ने माँ बनकर मुझको, प्यार दिया है भार सम्हाला ।
कलियों से अठखेली भी की ,जब किशोरवय था मेरा तन।
हम पत्ते पतझड़ …………………………..
मैंने सूरज की गर्मी को ,मरकत जैसे तन पे झेला ।
तपती हुई गर्म पछुआ से मैंने हाथ मिलाकर खेला।
मैंने तरुवर की चोटी से देखा गर्मी में तपता वन ।
हम पत्ते पतझड़ …………………………
सावन की पुरवाई आई, अंक पाश शीतलता लाई ।
मन ही मन हम सब हरषाये ,करके बूँदो की अगुआई ।
मेघों ने चमकाया धो कर, तन मेरा, जब आया सावन।
हम पत्ते पतझड़………………………
जाड़ो की वो कारी रातें, शीतलहर तन को तड़पाती।
कफन सरिस कुहरे की चादर, धूप दूर तक नजर न आती ।
मलिन हो गये पीले पड़कर, शाखाओं से छूटा दामन ।
हम पत्ते पतझड़………………………………….
© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी ,21/06/21 गोरखपुर