लघुकथा – संतान
अरे पुतवा ! तू अभी तक यहीं खाट पर बैठा है ।
गाँव की सारी पंचायत,छोटे-बड़े सभी पौध लगाने के लिए जमा हो गए हैं । ‘सब तेरा ही इंतज़ार कर रहे हैं चल-चल जल्दी उठ ।’
‘सरपंच जी ने मुझे भेजा है तुझे बुलाने को।’ – मक्खन दादा ने कहा ।
पुतवा कुछ देर ख़ामोश रहा मानो डूबते सूरज-सी उदासी उसके अंतर में समा गई हो ।
‘मैं क्या करूँगा आकर ! आपको तो पता है न कि मेरा जवान बेटा नहीं रहा । शहर बस गया था हमारे लिए चार पैसे कमाने को, पर अकेला था, उसे वक्त पर सही इलाज न मिल सका ! लोग कालाबाज़ारी करते रहे और बिना आक्सीजन सिलेंडर के ही।
मुझे नहीं लगाना कोई पौध-वौध मेरा तो संसार ही उजड़ गया…….(पुतवा का गला रुंध गया वह आगे कुछ न कह सका )
‘देख पुतवा,हम तेरा दर्द समझते हैं । हम तेरा बेटा तो वापिस नहीं का सकते, पर क्या तू चाहेगा कि महामारी ने जिन बेक़सूर मासूमों को को दुष्ट लोगों के कुकर्मों की वजह से लपेट लिया है । वो कहावत हैं न -‘आटे के साथ घुन भी पिस जाता है ।’ हम एक पौध लगाकर अपने पर्यावरण की रक्षा करेंगे तो प्रकृति का क्रोध कम कर सकेंगे, शायद ये महामारी सिमट जाए ।
अच्छी कोशिशें कभी ज़ाया नहीं होतीं । अगर तू अपने बेटे के नाम से एक पौध लगाएगा तो ये समझना कि तूने कितनों को जीवन दिया है ।
यही सच्ची श्रद्धानजलि होगी तेरी अपने बेटे को ।’ मक्खन दादा ने पुतवा काँधे पर हाथ रखकर कहा ।
पुतवा- ‘ हाँ ! दादा ( गंभीर सोच के साथ उठता है । )
वो एक पौध नहीं मेरी वो संतान होगा जो सभी को साँसें देगा बिना भेदभाव के।
चलो चलता हूँ ।’
भावना अरोड़ा ‘मिलन’
कालकाजी,नई दिल्ली