व्यंग्य – मानव, पहले मानव है?
कहा जाता है कि ‘मानव पहले पशु है ,बाद में मनुष्य।’ किन्तु मुझे इसके ठीक विपरीत ही प्रतीत होता है।अर्थात ‘मानव पहले मनुष्य है ,बाद में पशु है।’ हो सकता है बहुत पहले जब मानव – सभ्यता का विकास नहीं हुआ था, अथवा वह अपने शैशव काल में रही होगी ,तब मनुष्य, मनुष्य कम ; पशु ही अधिक रहा हो। क्योंकि उसका रहन – सहन, आसन, असन, वसन, व्यसन ,आहार, निद्रा , देह – सम्बन्ध आदि सभी क्रिया -कर्म पशुओं जैसे ही रहे हों, लेकिन शनैः – शनैः विकसित सभ्यता ने उसे पशु से उठाकर मनुष्य की पंगत में बिठा दिया हो।कौवे से हंस, गधे से गाय, बिच्छू से मधुमक्खी,नाली के कीट से फलों की गिड़ार, उल्लू से गरुण, मेढक से घड़ियाल बना दिया हो।
आज मनुष्य पशुओं से बहुत आगे निकल चुका है। अब वह गुफ़ाओं, बिलों और पेड़ों पर अपने घर- घोंसले बनाने के बजाय ऊँची -ऊँची अट्टालिकाओं और बहु मंजिला भवनों में निवास करता है।पशु, पक्षी , कीड़े – मकोड़े, बेचारे वहीं के वहीं रह गए और वह पशु से मनुष्य बन गया।बंदर आज भी बंदर है, गधा आज भी गधा है, गाय-भैंस आज भी गाय -भैंस ही बने हुए हैं।नाली का कीड़ा आज भी नाली में और सुअर आज भी नाले में किलोलें करते हुए देखे जा सकते हैं। पर वाह रे !मानव, तारीफ़ है तेरी की तू कहाँ से कहाँ पहुँच गया! तू कभी गीदड़ की तरह गुफ़ावासी था , अब महलवासी हो गया। बनैले हिंसक शेर , चीते ,भालू आदि से जान बचाने के लिए भय वश तू पेड़ों पर घोंसले बना कर रहता था , अब एअर- कंडीशंड कमरों में विलास करता है।अब तू पशु नहीं है , न पक्षी और न ही कोई कीड़ा मकोड़ा ।(यह अलग बात है कि कुछ मानव देहधारी प्राणी आज कीड़े-मकोड़ों, कुत्ते ,बिल्लियों की जिन्दगी से भी बदतर जीवन जी रहे हैं।) आमतौर से मानव तिर्यक औऱ इन यौनियों से बहुत ऊपर जा चुका है।
आज जंगली जानवरों, चिड़ियों , जलचर जीवों, कीड़े -मकोड़ों, दीमक , चींटी , चींटे में जो एकता ,संगठन औऱ प्रेम संबंध मिलता है ,वह मनुष्य जाति से विदा हो चुका है। आप जानते ही हैं कि अब वह प्रबुद्ध मानव है।अब उसे अन्योन्याश्रित जीवन जीने की क्या आवश्यकता ? वह अब कमजोर थोड़े ही है ,पशुओं ,पक्षियों की तरह! वह बुद्धि बल औऱ देह बल में इनसे आगे निकल कर केवल अपने परिवार ,संतान ,और कुटुम्ब के लिए ही जीने में जीवन की सार्थकता मानता है। उसे अब अपने स्वार्थ में दूसरे के सहयोग की भी आवश्यकता नहीं है। वह अकेले जीने में खुश ही नहीं, संतुष्ट भी है।उसे अपने छोटे से घरौंदे के घेरे में ही रहना और जीना पसंद है।
अब आज का मानव एकता में नहीं ,विभाजन में विश्वास करता है। इसलिए उसने वर्ण- भेद, जाति- भेद, भाषा -भेद, क्षेत्र -भेद ,प्रदेश -भेद, जनपद -भेद, नगर -ग्राम -भेद, और न जाने कितने भेद में विभाजित होकर खंड – खंड होकर जीने को ही सुखी जीवन की आधार शिला माना है। मुँह से एकता, अखण्डता, संगठन के गीत गाने वाला मानव इन सब को केवल आदर्श की किताबों, उपदेशों, कविताओं और गीतों में लिखकर रखता है, लेकिन वास्तविकता ठीक इसके विपरीत है। उसे प्रेम के बजाय लड़ना अधिक पसंद है। तभी तो महाभारत और दो – दो विश्वयुध्द हुए । तीसरे विश्वयुध्द की तैयारी में बारूद के ढेर पर बैठकर परमाणु बम बनाकर उस ‘शुभ पल’ की प्रतीक्षा में उतावली से बैठा हुआ है। खून -खराबा देखने में आनन्द लेना ,मनुष्य की हॉबी है। तभी तो मरते हुए आदमी को बचाने के बजाय उसके वीडियो बनाना, फ़ोटो खींचना उसे ज्यादा पसंद है। उसे किसी के मरण को अपना प्रिय उत्सव बनाना उसका बहुत ही रोचक कर्म है। कहीं आग लगे, दुर्घटना हो , किसी के प्राण निकलने वाले हों, तो वह सबसे पहले अपना मोबाईल निकाल कर पत्रकार की भूमिका में आकर उसे प्रसारित करना अपना धर्म समझता है। उसका यह कृत्य उसे पशुओं से भी बहुत ऊपर उठा देता है।
चील ,कौवे, गौरैया, मोर , कोयल, हंस आदि पक्षी, गधे ,घोड़े , गाय बैल, भैंस, बकरी ,भेड़ आदि पालतू पशु, शेर ,चीते , हिरन, खरगोश, सर्प ,गिरगिट , चींटे ,दीमक, चमगादड़, मक्खी , मधु मक्क्खी, भौरें, तितलियाँ आदि कभी रंग भेद या जाति के लिए एक दूसरे के खून के प्यासे नहीं देखे गए। बेचारे इतना वृहत दिमाग़ कहाँ रखते हैं कि वे महायुध्द कर अपनी अभिजात्यता सिद्ध करें! यह तो ‘अति बुद्धिमान’ मानव ही है कि वह छोटी – छोटी बात पर दूसरे मज़हब,जाति औऱ वर्ण के रक्त का प्यासा बनकर उसे चाट जाने में ही अपने को उच्च मानता है।
मानव को ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों में विभाजित होकर उसे बड़े गर्व की अनुभूति होती है। अपने को उच्च और अन्य को हेय मानकर उसे निम्न सिद्ध करने में बड़ा आनन्द आता है। इसी प्रकार ईसाई, यहूदी , मुस्लिम,औऱ न जाने कितने मानव विभंजक रूप हैं ,जो नहीं चाहते कि दुनिया में शांति रहे। उसे लड़ने-लड़ाने में जो आनन्द आता है , वह कहीं भी नहीं मिलता। लड़ाने वाले लड़ाकर आनन्द मनाते हैं। ‘अति बलशाली ‘लड़कर अपनी मनः शांति मनाते हैं, अपने अहंकार में मिट जाना सहर्ष स्वीकार है मानव को, किन्तु शांति प्रियता उसे कायरता का पर्याय प्रतीत होती है।
युद्धप्रियता मानव का प्रिय ‘खेला’ है। यही उसकी प्रियता का मेला है । आख़िर मानव भी तो लाल रंग का चेला है।अब वह चाहे साड़ी में हो या माँग में, चूड़ी में हो या दिमाग़ में,रक्त में हो या अनुरक्ति में (प्रेम में, मनुष्य प्रेम का रंग भी लाल मानता आया है , वही रंग शृंगार का भी है।)।इसीलिए किसी युग के राजा लोग युद्ध में लाल खून की नदी बहाकर दूसरे राजा की पुत्री या रानी को छीनकर लाल लाल जोड़े में लाल शृंगार की लाल-लाल सेज पर सुहाग रात मनाते थे।
‘विनाश काले विपरीत बुद्धि’ के सिद्धांत का उद्घोषक और मान्यता देने वाला मानव इसके विपरीत चलना ही उचित मानता है। आप तो जानते ही हैं कि इनके सिद्धांत केवल उपदेश, ग्रंथों की शोभा बढ़ाने और दूसरों को बताने ,(स्वयं करने के लिए नहीं),अपने धर्म की शेखी बघारने, अपनी अभिजात्यता का डंका पीटने-पिटवाने औऱ प्रदर्शन के लिए ही तो हैं। अब पशु-पक्षी बेचारे क्या जानें ये आदर्शों की ‘ऊँची – ऊँची बातें’ !
आइए हम सब सब आपस में लड़ें ,कटें, मिटें और पशु – पक्षियों के ऊपर अपने मानव – साम्राज्य की आवाज़ बुलंद करें। अंततः मानव पहले मानव है , बाद में पशु भी हो सकता है। जब मानव होने पर उसका ये हाल है ,तो पशु होने पर क्या हाल होगा ,कल्पनातीत है। भले ही वह कोयल के कलरव, मोरों की मेहो !मेहो !! गौरैया की चूँ -चूँ , कौवों की कांव – कांव ,शहर – शहर या गाँव -गाँव में कोई भी उसे सुनने मानने वाला न हो।
इसीलिए तो मैंने कहा कि ‘मानव पहले मानव है , बाद में पशु।’
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’