कविता

हाथ की लकीरें

बिना हाथ के भी दुनियां में लोग जीते हैं
हाथ की लकीरें तो इक बहाना है
लकीरें ही सब कुछ नहीं है ज़िन्दगी में
अपने कर्मों से ही सबको कुछ पाना है
लकीरों से पेट नहीं भरेगा
उसके लिए कुछ कमाना पड़ेगा
किसी को किसान ,मज़दूर,डॉक्टर
इंजीनियर,फौजी बन जाना पड़ेगा
लकीरें किसी के हाथ में ज़्यादा
किसी के हाथ में कम हैं
पाता वहीं है जीवन में मंजिल
जिसका दिमाग तेज और बाजुओं में दम है
लकीरों से किस्मत नहीं बदलती
वरना कोई मज़दूर न होता
पैसे की कोई तंगी न होती किसी को
कोई इतना मजबूर न होता
बिना हाथ वालों ने भी मंजिल पाई है
उनके पास तो नहीं थी लकीरें
अपनी मेहनत के बल पर ही तो
उन्होंने बदल डाली अपनी तकदीरें
रवींद्र कुमार शर्मा
घुमारवीं
जिला बिलासपुर हि प्र

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र