कविता

ज़िन्दगी की शाम कभी तो ढल जानी है


सूरज निकलता है फिर छुप जाता है
इक नई सुबह लेकर फिर आता है
दिन निकलता है शाम हो जाती है
ज़िन्दगी भी बस यही कहानी दोहराती है
दूर क्षितिज में जब सूरज डूबने लगता है
पंछी चल पड़ते हैं वापिस अपने घोंसले की ओर
ज़िन्दगी की शाम भी अब ढल रही
इंतज़ार कर रही दूर खड़ी उस छोर
दिन भर की भाग दौड़ में आदमी के लिए
गोधूलि का समय होता है कुछ खास
थक हार कर काम से लौट आता है
वापिस घर अपने प्रियजनों के पास
जवानी में जो समझते थे अपने आपको शहंशाह
बुढ़ापे की दस्तक सुन कर अब घबरा रहे
ढलने लगी है अब शाम ज़िन्दगी की
वक्त कब ठहरा किसी के लिए अब क्यों पछता रहे
आदमी की ज़िंदगी की अजब कहानी है
कभी बचपन कभी बुढापा कभी जवानी है
कितना भी बलवान हो रहेगा नहीं हमेशा कोई
ज़िन्दगी की शाम कभी तो ढल जानी है
रवीन्द्र कुमार शर्मा
घुमारवीं
जिला बिलासपुर हि प्र

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र