पिता
पिता का प्यार कैसे बताऊँ?
उनके कपड़े से झांकते हुए तन,
कैसे दिखाऊं?
निकलते बूंद – बूंद पसीनों की,
अठखेलियाँ कैसे समझाऊं?
उनके कर्मठ व्यक्तित्व के किस्से,
किसे सुनाऊं?
पके हुए उनके बाल,
हाथों की खुड़दुरी,
पैरों की बेवाई,
आंखों के नीचे पड़ी हुई झाईयों
के किस्से किसे सुनाऊं,
जिसे पहनकर मैं,
दोस्तों के संग
अमीरी का ढ़ोंग रचती थी।
देहरी पर पांव रखते ही,
स्निग्ध, सरल मुस्कान से पुछ उठते,
तुम्हें कोई दिक्कत तो नहीं बेटा।
और मैं अनमने ढंग से बिन जवाब दिए
अंदर घुस जाती थी।
चेहरे पर कुछ कर गुजरने का संजीदा भाव,
स्फूर्ति से भरी सुबह की ताजगी
और संध्या की थकावट
उस चारपाई से कैसे पुछू?
कैसे मिलती थी? उसे पचपन की आहट,
बगल में खड़ा होकर संध्या होने का
करता था इंतजार,
और बड़ी तत्परता से बिछ जाने को
दिनभर रहता था बेकरार।
आज भी अपने जर्जर अवस्था में पड़ा है।
देखती हूं जब उस ओर,
मानो कह रहा हो,
ऐसे ही नही मिलता “चार पाई”।
हर मुराद हंस के पूरा करते थे,
कभी हुआ न दुःख – दर्द का एहसास।
आज पथरीली पथ पर खड़ी हूं,
एकटक उदास।
अरमानों की बात ही छोड़ो,
दो जून की रोटी बडी़ मुश्किल से
पा रही हूँ।
पितृत्व के सफर से,
गृहस्थी के सफर में,
आज वेदना के स्तर तक पहुंच गई हूँ।
पर, कोई छांव नही मिलती
जहाँ आनंद से सो सकूं।
टटोलती हुं अंधेरे में,
मिल जाए कहीं पितृत्व अहसास,
जहां से कर्म पथ पर चलूं निरंतर,
मिलता रहे उनके होने का आभास।
— निधी कुमारी