ग़ज़ल
दिल में हैं समाईं तुम्हारी दो आँखें।
भूले न भुलाईं तुम्हारी दो आँखें।।
नज़रें हुईं चार जब से हमारी,
पलकों में जा लुकाईं तुम्हारी दो आँखें।
तुम्हें देखते देखतीं जब लगन से,
ले आती हैं लुनाईं तुम्हारी दो आँखें।
गया ख़्याल मेरा उधर को ज़रा भी,
कनखियों ने सजाईं तुम्हारी दो आँखें।
रुखसार तव हो गए लाल सेबी,
करिश्मा-बनके छाईं तुम्हारी दो आँखें।
पकड़ा जो कर मैंने नाज़ुक तुम्हारा,
हाँ-हाँ के पक्ष आईं तुम्हारी दो आँखें।
‘शुभम’ चख-करिश्मा का कायल जमाना,
गज़ब क्या न ढाईं तुम्हारी दो आँखें।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’