कहानी

लाल गाड़ी

पूरे बीस साल बाद अपने शहर वापस लौट कर आई थी वापस आ कर बहुत अच्छा लग रहा था वही पहले जेसा सकून था बेशक सब कुछ पहले जैसा नही रहा था सब कुछ बदल चुका था यहाँ की सडकें,बाज़ार दुकाने सब कुछ,शयद पहले से सब कुछ बढ़िया हो चुका था अब सडकों पर गाड़ियों  की भीड़ नही लगती थी क्योंकि सडकें अब बहुत खुली कर दी गई  थी बड़े बड़े मोल बन चुके थे बस कुछ इमारते थी जो अभी भी वैसी ही थी जैसे मेरा कालेज की इमारत वैसी ही थी जैसे बीस साल पहले थी कालेज के सामने थोड़ी दूर एक तरफ जा कर गाड़ी रोक दी कुछ पुराने दिन आँखों के सामने आ गये, बहुत अच्छे दिन थे वह भी, मेरे कालेज की कुछ सहेलियाँ मेरे घर के पास ही रहती थी हम सब पैदल ही बातें, मस्ती करते हुए कालेज पहुँच जाते, न सजने सँवरने का गम, न ही किसी लड़के की परेशानी अपनी ही जिंदगी में हम सब खुश रहते थे| आज न जाने कोन  कहाँ होगा  किसी से कभी कोई मुलाकात ही नही हुई | इन्ही ख्यालो में  धीरे धीरे में आगे बढ़ने लगी | कालेज से   आगे सड़क की बाएँ तरफ  मेरी नजर सामने पोस्ट ऑफिस की इमारत पर पड़ी उसकी इमारत भी पहले जैसी ही थी बस उसके सामने की कुछ छोटी इमारतों को हटा दिया गया था | इस इमारत के साथ बचपन की बहुत प्यारी प्यारी यादें जुड़ी हुई थी हमारे बचपन में पत्र  लिखने का दौर था हम सब बच्चे  मिल कर उन पुराने पत्रों  से डाक टिकट  उतार कर एक छोटी सी डायेरी पर चिपका कर इकट्ठा करते, ये सब कर के जो ख़ुशी मिलती वो बयान न करने वाली होती और पोस्ट ऑफिस की वह लाल गाड़ी जो स्कुल जाते हुए में और मेरी बड़ी बहन को लाल गाड़ी चलाते हुए ताऊ जी मिल जाते हमारा स्कुल घर से बहुत दूर था और हम दोनों को पैदल ही जाना पड़ता था | महीने में दो तीन बार जब भी ताऊ जी को वहां से आना होता था तो हमे स्कुल से घर की तरफ जाते हुए  रास्ते में मिल जाते दूर से हम दोनों पर नजर पड़ते ही वह  गाड़ी एक तरफ  रोक कर हमारे पास आ जाते और प्यार से हम दोनों के सिर पर हाथ फेरते फिर अपने जेब में हाथ डाल कर एक एक रुपए का नोट निकल कर हमारे हाथ में रख के कहते तुम्हे भूख लगी होगी कुछ खाने के के लिए ले आओं में तब तक गाड़ी के पास तुम्हारा इंतजार करता हूँ फिर में तुम्हे घर छोड़ आउँगा सच कहूँ तो वह  हमारा  सबसे अच्छा  दिन होता धुप में चलते चलते वैसे भी शरीर निढाल हो चूका होता ताऊ जी हमेशा भांप जाते की हम दोनों बहुत थक चुके हैं सड़क के आगे जा कर  कोने में एक चने व मटर बेचने वाले की रेड़ी लगी होती थी हम दोनों अक्सर उनके पास जा कर चने ले कर  खाते थे आज भी जब ताऊ जी ने पेसे दिए तो  हम दोनों रेड़ी के पास पहुँच गए चाचा जल्दी से चने दे दो बहुत भूख लगी है !” दीदी जल्दी में बोली” अरे कोई न सब्र करो देता हूँ, हम उन्हें चाचा बोलते थे | उसने हमे चने दिए हम जल्दी से अपने अपने चने ले कर ताऊ जी की गाड़ी में बैठ गये अब ये चने हम दोनों ने एक एक दाना कर  करके खाने लगे |स्कूल जाते जब भी हमे ताऊ जी मिलते तो वह  हमेशा की तरह हम दोनों को एक रुपए जरुर देते | ताऊ जी हम दोनों को बहुत प्यार करते थे, उन्हें हमारा इस तरह पैदल इतनी दूर कड़ी धुप में चलना अच्छा नही लगता था वह इस बारे में बहुत बार पिता जी से कह चुके थे की लड़कियों को किसी नजदीक ही किसी अच्छे  स्कूल में भर्ती करदो, एक तो सरकारी स्कूल और वह भी इतनी दूर , उस रास्ते न कोई तांगा जाता है न कोई बस, उनको धूप  में चलते देख मेरा दिल रो उठता है लेकिन हमेशा की तरहं पिता जी उनको अपनी कम आमदन  होने का  कारण बता कर  चुप करवा देते, सच कहूँ तो पिता जी भी मजबूर थे घर में हम चार बच्चों  का खर्चा और कमाने वाले वह  एक , वैसे भी घर का खर्चा हम बच्चों की पढाई का खर्चा भी तो बहुत था परन्तु कभी कभी गुस्सा भी आ जाता की पिता जी ने दोनों भाइयो को अच्छे स्कूल में पढ़ाया और हमे नही,वैसे पिता जी थे भी पुराने विचारो वाले उनके विचार में  लड़कियों को  ज्यादा  पढ़ा  लिखा  कर क्या करना है, शादी करके घर ही तो सम्भालना  है  लेकिन जैसे जैसे समय बदलता गया  पिता जी को एहसास होने की अब लड़कियो का भी पढना लिखना उतना ही आवश्यक है जितना लडकों का |   काश लडकियों को भी अच्छे स्कूल में पढ़ाया होता एैसा उनको कई बार माँ से कहते हुए सुना था | इसी तरह समय बीतता गया  दीदी भी अब स्कूल की पढ़ाई   पास करके कालेज जाने लगी थी मैं भी दसवीं पास करके दूसरे स्कूल जाने लगी थी अब हम दोनों का  रास्ता भी अलग हो चुका था|  ताऊ जी भी रिटायर हो चुके थे , समय के साथ साथ सब कुछ बदलता जा रहा था|  इमारते वहीं थी परन्तु आधुनिक तकनीक के आने से  काम करने के ढंग बदल चुके थे वह  लाल गाड़ी जिसे देख कर हम   खुश हो जाया करते थे अब न जाने कहाँ गुम हो गयी यही सोचते हुए अचानक मेरी सोच की कड़ी टूट गयी गाड़ी से बाहर देखा तो एक औरत अपने बच्चे को लेकर खड़ी पैसे माँग रही थी बीबी कुछ पैसे  दे दो बच्चा भूखा  है  मेने पर्स में से दस रुपए निकाल  कर उस औरत की और बढा दिए , बीबी दस रुपए  और दे दो भगवान भला करके दस रुपए से क्या होगा मेरा बच्चा कल से भूखा है अब तो  दूध भी दस रुपए में नही आता उसकी बच्चे का मासूम चेहरा देख कर  मुझे दया आ गई मेने पर्स में से सौ रुपए  का नोट निकाल  कर  उस औरत को दे दिया मैं  उसकी बात से थोडा  आश्चर्य भी  थी किस तरह हम ताऊ जी के दिए एक रुपए लेकर भी खुश हो जाते थे और आज देखो माँगने वाले भी दस रुपए  ले कर  खुश नही होते

“सही में बहुत कुछ बदल गया था |”

— रमेश कौर

रमेश कौर

पिता का नाम: सरदार किरपाल सिंह दत्ता पति का नाम: रविंद्र सिंह जन्म तिथि : 18/07/74. जन्म स्थान : श्रीनगर , कश्मीर पता: हाउस न: 378 , गुपकाररोड , वुड लैण्ड विद्धालय के पास सोनवार,श्रीनगर, कश्मीर, 190001 कार्यक्षेत्र :  अध्यापिका (पंजाबी और हिंदी)  ( बर्न हाँल  हायर सेकेण्डरी स्कूल) रूचि:  साहित्य में पठन और पाठन