स्वेद के बिन्दु
स्वेद के बिन्दु चम चम चमकते हुए,
श्रम की कहते कहानी चहकते हुए।
चीर भूधर बहाई है सलिला विमल,
सागरों में भी खोजे है पुष्पित कमल।
शैल सुमनों से जल पर विहसंते रहे,
लक्ष्य के पथ को सपने निरखते रहे।
बल भुजाओं में भरकर महकते हुए,
श्रम की कहते कहानी चहकते हुए।
शीत का काल हो या हो वर्षा सघन,
कर्म के क्षेत्र में मन हुआ जब मगन।
रूप बदले अरण्यों ने पुरियां बसी,
कुंज कानन की जड़ता में फूटे हंसी।
पग बढ़ाया चले हम हुलसते हुए,
श्रम की कहते कहानी चहकते हुए।
श्रम ने भक्ति भरी ध्वज न झुकने दिया,
शूरवीरों से मां को न चुकने दिया।
यम के द्वारे पे पहुंची सती ले के सत,
छीन लाई वो माया से मृत अपना पति।
विधि की खींची लकीरें बदलते हुए।
श्रम की कहते कहानी चहकते हुए।
स्वेद के बिन्दु चम चम चमकते हुए,
श्रम की कहते कहानी चहकते हुए।
— सीमा मिश्रा