कविता

चिंता लाश बना देती है

चूर कर दे जो हिम्मत, ऐसी सज़ा देती है,
सब्र की हर वक़्त, कठोर परीक्षा लेती है,
जीने की चाहत का,  कर देती है क़त्ल,
चिंता एक इंसान को, लाश बना देती है।
आँखों से नींद और सपने चुरा लेती है,
भूख क्या यह प्यास तक मिटा देती है ,
ज़िन्दगी का हर पल लगने लगे भारी,
चिंता एक इंसान को बोझ बना देती है।
खुश दिखने की कोशिश मन थका देती है,
चेहरे की झूठी मुस्कान हृदय रुला देती है,
स्वयं की सहनशक्ति करती आश्चर्यचकित,
चिंता एक इंसान को पत्थर बना देती है।

— दीप्ति खुराना

दीप्ति खुराना

वरिष्ठ कवयित्री व शिक्षिका, स्वतंत्र लेखिका व स्तम्भकार,मुरादाबाद'- उत्तर प्रदेश