व्यंग्य : आगे कुछ, पीछे रुक्ष
अरे!आप जानते नहीं दुनिया का हाल।आगे से मराल पीछे से काग।ये दुनिया है ही ऐसी। जैसी बनाई प्रभु ने वैसी।जहाँ भी जाइए ,यही दशा पाइए। आप और हम भला कर भी क्या सकते हैं।उसके हर आयाम को समान कैसे कर सकते हैं! इस धरती को ही देख लीजिए ,कहीं पर्वत कहीं मैदान,कहीं सागर कहीं झीलों का गहन आह्वान, कहीं फटते हुए भयंकर ज्वालामुखी, कहीं हिमाच्छादित पर्वत राशि, कहीं सरिताएँ, सरोवर, तालाब, कहीं रेगिस्तान में रेत का तपता हुआ बहाव।कहीं कोई समता नहीं ।आगे न पीछे ,ऊपर न नीचे।
अब बताइए भला! आदमी इस उपक्रम से कैसे बाहर हो सकता है! इसी प्रकृति से अनुरूप साँचे में उसे भी ढलना पड़ेगा।उसका भी झंडा ऐसे ही किसी स्थल पर गड़ेगा।जिसका श्रेय वह अपने माथे पर मढ़ेगा। आदमी के आगे मुँह, आँख, नाक,कान,गाल,अधर,चिबुक, और उस ओर सब केश आच्छादित ढालू सपाट, नीचे ग्रीवा, स्कंध ,वक्ष,वक्षोज (नारी में) उदर,नाभि, जाँघ ,टाँग, पैर और अन्य आवश्यक उपकरण,अंग ,उपांग, निम्नांग। पीछे पर्वतों जैसा उतार-चढ़ाव।मानव-देह की रचना का विचित्र बनाव-सजाव। हृदय में भाव,देह के विविध अंगों से हाव, मष्तिष्क में ताव, माँस की जीभ से अपूरणीय घाव, कभी प्रभात की वात, कभी तमाच्छादित रात। कभी जलजात का महकता श्वास- प्रश्वास ! कभी प्रभंजन का आकस्मिक आघात।
आप ही देख लीजिए। एक एक मुँह में दो -दो जबान।एक गंगा की तरह दृश्य औऱ दूसरी नाले की तरह सुरंग-समाई अदृश्य। जैसे पटा हुआ कोई सीवर , दृश्य जीभ जैसे पवित्र रिवर। आगे गंगा ,पीछे नाला। एक गोरी ,दूजा काला। कहीं श्मशान कहीं शिवाला।
आदमी के सामने आदमी कुछ और ही होता है। पीछे उसी के लिए शूल ही बोता है। उसकी आगे औऱ पीछे की बात जान ली जाए,तो रस में भी विष का वास स्पष्ट नज़र आए। इसमें वह अपने किसी प्रिय को भी नहीं छोड़ता।आदत से मजबूर है ,क्या करता! जीभ जो दो हैं। दोनों से काम जो लेना है। बिना एक को चलाए दुम की तरह खो नहीं देना है।यही तो जीव विज्ञान का सिद्धांत है।औऱ ये आदमी भी सिद्धांतवादी है। भला वह सिद्धांत से पीछे कैसे हट सकता है।इसलिए दोनों जीभों के पृथक-पृथक कार्यों से परांगमुख कैसे रह सकता है। इसीलिए वह आगे कुछ और पीछे कुछ और ही है। आगे स्निग्ध! मुग्ध,पीछे क्षुब्ध,क्रुद्ध। आगे से कुछ ,पीछे से रुक्ष!! मुँह पर रस की धार लगातार, पीछे विष का ज्वार अपार। बदल जाती हैं आँखें भी, बदल जाते हैं स्वर ! बदल जाती हैं नज़रें बदल जाते हैं तेवर।कभी घेवर ,कभी उड़ता है बे पर।
विचित्र है मानव का चरित्र।साहित्यकारों ने खींचे हैं जिनके अनगिनत चित्र।कहानियों, कविताओं ,उपन्यासों, नाटकों आदि में मानवीय चरित्र के बहुरूपिये चरित्र के बहुरूप। चाहे हो राजा या मंत्रियों का स्वरूप। प्रजा हो या अमीर गरीब , दिन पर दिन बदलते चेहरे, बदलते रंग रूप। गिरगिट को भी पीछे छोड़ दिया है। आगे औऱ पीछे के चरित्र को इतना झिंझोड़ दिया है। कभी करता हुआ प्रभु की पूजा, कभी बकता हुआ गाली कि हे भगवान! तूने क्या किया। भगवान को भी नहीं बख़्सता। इंसान क्या चीज है। आदमी के अंदर पड़ा हुआ ही ऐसा बीज है। जो कभी कीकर है, करील है, करेला है। कभी तीतर है,बाज है,कोयलों का मेला है।
आदमी को आदमी से ,उसके अदृश्य आघात से बचना है। प्रकृति की ये है ही ऐसी विचित्र विरोधाभासी रचना है ।मैं इससे भी अधिक क्या बतलाऊँ कि आदमी आगे से कुछ है औऱ पीठ पीछे कुछ और ही है ,रुक्ष है।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’