व्यंग्य : मुखचोली-पुराण
अथ श्री ‘मुखचोली पुराणम’ प्रारभ्यते ।
आधुनिक युग का मानव इतना अधिक ‘विरस’ (VI RUS) अर्थात रस विहीन हो गया है कि अपनी विरसता के कारण वह अपना मुख किसी को दिखाने में भी शर्माता , हिचकिचाता है।वह पशुओं (कुत्तों, बिल्लियों, गायों, भैंसों, बकरियों ,भेड़ों,घोड़ों ,गधों आदि) का विश्वास कर सकता है, किन्तु अपनी तरह के शरीरधारी मानुष को अपना चेहरा तक दिखाने से पहले दस बार विचार करता है, इसके लिए उसने नारियों की कुच-चोली के समान ही ‘मुख चोली’ की खोज कर ली है। जिसे वह कम से कम घर से सड़क, बाज़ार, दुकान, हाट,बारात ,जनवासा, बैंक की कतार, राशन की भीड़, मंदिर , गुरुद्वारा आदि स्थानों पर अपने -अपने मुख पर लगाने की अवश्य सोचता है।यदि लगाता नहीं है तो पेंट की जेब, पर्स ,थैला आदि की शोभा बढ़ाता है औऱ बहुत ‘ज़्यादा समझदार’ हुआ तो अपने दोनों कानों रूपी खूटियों पर टाँगकर अपनी ठोड़ी की मेंड़ पर अटका ही लेता है।चौराहे पर उसे पुलिस वाले से चालान होने का डर जो है !
इस देश की यह त्रेतायुग से निरंतर चली आ रही परम्परा रही है कि यहाँ भय के बिना तो प्यार भी नहीं होता : (भय बिनु होय न प्रीति लाख करौ बैरी की सेवा)। इस पवित्र परम्परा का श्रेय समुद्र महाराज को दिया जाता है ,जो सीधे- सीधे भगवान राम को समुद्र में मार्ग भी नहीं देना चाहते। परन्तु जब भगवान राम क्रोधावेश में धनुष पर शर- संधान कर लेते हैं ,तो करबद्ध प्रार्थना करते हुए उनके समक्ष आकर खड़े हो जाते हैं :’आदेश कीजिए प्रभु!’ यही स्थिति पुलिस के सामने बिना ‘मुखचोली’ धारी महिला / पुरुष की होती है।तब वह झट से पर्स/जेब से ‘मुखचोली’ निकाल कर स्व- मुखारविंद औऱ स्व-नासिका छिद्रों को फ़टाफ़ट आवृत्त करने लगता/लगती है। यह सब ‘श्रीराम-सागर परम्परा’ का निर्वाह ही तो है।
‘मुखचोली’ का विकास औऱ रूप परिवर्तन असाधारण रूप से हो रहा है। निरंतर उसके रंग, रूप ,आकार और प्रकार में बदलाव देखे जा रहे हैं। साड़ी की डिजाइन तथा रंग से मैच करती हुई ‘मुखचोलियों’ से बाजार गरम हैं।जैसी साड़ी वैसी ‘मुखचोली’ (जैसी साड़ी वैसी बिंदी की तरह )अनेक छींटों , रंगों , औऱ विविध आकारों में ‘मुखचोलियाँ’ उपलब्ध हैं। अंततः बाज़ार भी तो हमारी रुचियों के गुलाम हैं न! जैसे हम ,वैसे बाज़ार, वैसा माल, वैसी हमारी चाल, (भले ही उखड़ रही हो देह की खाल), पर प्रदर्शन (फैशन) के अनुरूप होगी हमारी चाल, बस ‘मुखचोलियों’ का भी है यही हाल। पंक्तिबद्ध लटकती हुई ‘मुखचोलियों’ की बहार देखते ही बनती है। मर्द लगाए या औरत , बच्चा, बूढ़ा या नौजवान। सबके मुख की हैं ये ‘मुखचोलियाँ’ निराली शान।
‘मुखचोली ‘ की अगली प्रगति में अब इनके अंदर तरह -तरह के इत्र और सुगन्धों के संयोजन की बारी है।आवश्यकता अविष्कार की जननी है। अब रंग रूप बदल ही रहा है ,तो लगे हाथ उसमें यदि फ़ूलों की बसंत बहार भी आ जाए ,तो हर्ज ही क्या ! अब उसी की तैयारी चल रही है।
‘मुखचोली ‘के रंग ,रूप आदि की चर्चा के बाद यदि इसके जन्म और विकास की चर्चा भी कर ली जाए ,तो उचित रहेगा।जब हमारे यहाँ बैलों से कृषि कार्य हुआ करते थे, तब गेहूँ आदि की मड़ाई करते समय बहुत सारा अन्न ये वृषभ गण अपने मुख से भक्षण कर जाया करते थे। इस अन्न हानि को रोकने के लिए कृषक उनके मुख पर जालीदार आवरण कस दिया करते थे ,जिसे वे ‘मुसीका’ कहते थे। अब भला हम उसे ‘मुसीका’ कैसे कह सकते हैं! बैलों औऱ मनुष्य को एक ही डंडे से कैसे हांक सकते हैं! इसलिए ‘मुसीका’ औऱ ‘मुखचोली’ का लगभग एक समान काम (Function) होने पर भी उसे ‘मुसीका’ कैसे कहा जा सकता है! पशु और मानव के दर्जे में कुछ तो अंतर होना ही चाहिए न! इसीलिए उसका आधुनिक नाम ‘मुखचोली’ की व्यक्तिवाचक संज्ञा से अभिहित किया जाता है। यह अलग बात है कि दो ‘मुखचोलियों’ को यदि विधिवत संयोजित कर दिया जाए ,तो एक ‘कुचचोली’ का निर्माण हो जाता है। दोनों ही इंसान के लिए उपयोगी हैं।एक केवल स्त्री उपयोगी दूसरी सर्वोपयोगी। क्या ही अद्भुत संयोग है: ‘कुचचोली’ और ‘मुखचोली’।
‘मुखचोली’ को ही आंग्ल भाषा में ‘मास्क’ नाम से उच्चरित किया जाता है , लगता है कि कितनी महत्त्वपूर्ण वस्तु होगी। पर उसे कम महत्व की समझ लेना भी बड़ी भूल होगी। अंततः वह जीवन -रक्षक, जीवाणु- रक्षक,अशुद्ध वायु- रक्षक, रोगाणु-रक्षक और पहचान-रक्षक,(इसकी आड़ में चोर- शाह, अमीर-गरीब , चोर- डकैत, नेता -अभिनेता) किसी की कोई पहचान नहीं हो पाती भी है।
बहुउद्देशीय ‘मुखचोली’ की महिमा अनन्त है। चाहे कोई नेता हो या सिपाही, लोग हो या लुगाई , अधिकारी या कर्मचारी,सीमा-रक्षक या किसान, अब पशुओं को छोड़कर सबके लिए अनिवार्य है। यह सुरक्षा-कवच का आधुनिक अवतार है।कोई किसी को क्यों बताए! क्या समझाए! समझावन सिंह का अवतार मानव इसे लगाए तो लगाए और न लगाना हो तो न लगाए।उसे अपनी जान की रक्षा का मंत्र कितनी बार समझाएं! कितनी प्रकार समझाए।
इति ‘मुखचोली-पुराणस्य’ प्रथमो$ध्याय समाप्यते।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’