गीत ( बसंत)
रहा निहार बसंत धरा को
चंदन चंदन सा है तन
है सुरभित मनमोहक रूप
हृदय है खुला नीलगगन
प्राण फूंक रहा निर्झर वन में
महीप का नेह अपार प्रिये
पूरब दिशा में जाग रहा है
सूर्य देखो अगडा़ई लिये
रमणीय लागे प्रातःकाल अब
महकाते जग को प्रेम सुमुन
कोयल राग सुनाये रही है
कलरव करते देखो खग
बसंत महीप के स्वागत में
शीश झुकाता देखो नग
यमुना तट पे वंशी वट पे
कान्हा बजाये मुरली मधुर
प्रीत समीर घुली नस नस में
रूप गया चंदन सा निखर
अंतस में जल तरंग उठी
झंकृत हुई धड़कन धड़कन
झर झर झरना झरता
नदियों का बहता नीर यहाँ
किनारों से मिलने को आतुर
लहरें लगती अधीर यहाँ
भ्रमर गीत सुनाकर देखो
कलियों को यूँ मदहोश करे
चुरा चुरा कर उनसे मधु रस
यौवन पर उनके जोश भरे
तितली रंग बिरंगी देख
बच्चों का मन होता प्रसन्न
— आरती शर्मा (आरू)