गीत/नवगीत

बरखा बहार

बरसात शुरू होते ही परदेसी के आने की आस लगाए ग्रामीण महिला की भावनाएँ व्यक्त करने का प्रयास है।

उमड़ घुमड़ कर छाई बदरिया
मन मोरा हर्षाए
टपटप बरखा की धुन पर मन
गीत मिलन के गाए
अब तो आ जा ओ परदेसी,
क्यूँ करता है देरी
लगन लगी अब तेरी तुझ बिन
बिल्कुल रहा न जाए
उमड़ घुमड़ कर छाई बदरिया

सनन सनन सन हवा चले
मोरा जियरा धक धक बोले
मन का पंछी तन के पिंजर
में इत उत खूब डोले
घबराए, शरमाए मनवा
राह तके अब तेरी
लहर लहर लहराए चुनरिया
घूँघट के पट खोले
करवट बदल बदल कर सोऊँ
नींद न मुझको आए
उमड़ घुमड़ कर छाए बदरिया
मन मोरा हर्षाए …..

( कुछ दिन बाद उसके बदले हुए भाव )

ताल तलैया भरकर बहते
मन मोरा है रिता
तुम बन गए हो राम मेरे
और मैं हूँ तुमरी सीता
छोड़ मुझे परदेस गए हो
जाने कब आओगे
जब आओगे, बतालाऊंगी
तुम बिन कैसे बिता
पल पल बाट निहारूँ तुमरी
नैना छलक ही जाए
उमड़ घुमड़ कर छाए बदरिया
मन मोरा हर्षाये …..

राजकुमार कांदु
मौलिक / स्वरचित

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।